Tuesday, November 23, 2010

एक मध्यवर्गीय कुत्ता

मेरे मित्र की कार बंगले में घुसी तो उतरते हुए मैंने पूछा, ''इनके यहाँ कुत्ता तो नहीं है?'' मित्र ने कहा, ''तुम कुत्ते से बहुत डरते हो!'' मैंने कहा, ''आदमी की शक्ल में कुत्ते से नहीं डरता। उनसे निपट लेता हूँ। पर सच्चे कुत्ते से बहुत डरता हूँ।''

कुत्तेवाले घर मुझे अच्छे नहीं लगते। वहाँ जाओ तो मेज़बान के पहले कुत्ता भौंककर स्वागत करता है। अपने स्नेही से ''नमस्ते'' हुई ही नहीं कि कुत्ते ने गाली दे दी- ''क्यों यहाँ आया बे? तेरे बाप का घर है? भाग यहाँ से!''

फिर कुत्ते का काटने का डर नहीं लगता- चार बार काट ले। डर लगता है उन चौदह बड़े इंजेक्शनों का जो डॉक्टर पेट में घुसेड़ता है। यों कुछ आदमी कुत्ते से अधिक ज़हरीले होते हैं। एक परिचित को कुत्ते ने काट लिया था। मैंने कहा, ''इन्हें कुछ नहीं होगा। हालचाल उस कुत्ते का पूछो और इंजेक्शन उसे लगाओ।''
एक नये परिचित ने मुझे घर पर चाय के लिए बुलाया। मैं उनके बंगले पर पहुँचा तो फाटक पर तख्ती टंगी दीखी- ''कुत्ते से सावधान!'' मैं फ़ौरन लौट गया।

कुछ दिनों बाद वे मिले तो शिकायत की, ''आप उस दिन चाय पीने नहीं आए।'' मैंने कहा, ''माफ़ करें। मैं बंगले तक गया था। वहाँ तख्ती लटकी थी- ''कुत्ते से सावधान।'' मेरा ख़याल था, उस बंगले में आदमी रहते हैं। पर नेमप्लेट कुत्ते की टँगी हुई दीखी।'' यों कोई-कोई आदमी कुत्ते से बदतर होता है। मार्क ट्वेन ने लिखा है- ''यदि आप भूखे मरते कुत्ते को रोटी खिला दें, तो वह आपको नहीं काटेगा।'' कुत्ते में और आदमी में यही मूल अंतर है।

बंगले में हमारे स्नेही थे। हमें वहाँ तीन दिन ठहरना था। मेरे मित्र ने घण्टी बजायी तो जाली के अंदर से वही ''भौं-भौं'' की आवाज़ आई। मैं दो क़दम पीछे हट गया। हमारे मेज़बान आए। कुत्ते को डाँटा- ''टाइगर, टाइगर!'' उनका मतलब था- ''शेर, ये लोग कोई चोर-डाकू नहीं हैं। तू इतना वफ़ादार मत बन।''

कुत्ता ज़ंजीर से बँधा था। उसने देख भी लिया था कि हमें उसके मालिक खुद भीतर ले जा रहे हैं पर वह भौंके जा रहा था। मैं उससे काफ़ी दूर से लगभग दौड़ता हुआ भीतर गया। मैं समझा, यह उच्चवर्गीय कुत्ता है। लगता ऐसा ही है। मैं उच्चवर्गीय का बड़ा अदब करता हूँ। चाहे वह कुत्ता ही क्यों न हो। उस बंगले में मेरी अजब स्थिति थी। मैं हीनभावना से ग्रस्त था- इसी अहाते में एक उच्चवर्गीय कुत्ता और इसी में मैं! वह मुझे हिकारत की नज़र से देखता।

शाम को हम लोग लॉन में बैठे थे। नौकर कुत्ते को अहाते में घुमा रहा था। मैंने देखा, फाटक पर आकर दो 'सड़किया' आवारा कुत्ते खड़े हो गए। वे सर्वहारा कुत्ते थे। वे इस कुत्ते को बड़े गौर से देखते। फिर यहाँ-वहाँ घूमकर लौट आते और इस कुत्ते को देखते रहते। पर यह बंगलेवाला उन पर भौंकता था। वे सहम जाते और यहाँ-वहाँ हो जाते। पर फिर आकर इस कु्ते को देखने लगते। मेजबान ने कहा, ''यह हमेशा का सिलसिला है। जब भी यह अपना कुत्ता बाहर आता है, वे दोनों कुत्ते इसे देखते रहते हैं।''

मैंने कहा, ''पर इसे उन पर भौंकना नहीं चाहिए। यह पट्टे और ज़ंजीरवाला है। सुविधाभोगी है। वे कुत्ते भुखमरे और आवारा हैं। इसकी और उनकी बराबरी नहीं है। फिर यह क्यों चुनौती देता है!''

रात को हम बाहर ही सोए। जंज़ीर से बँधा कुत्ता भी पास ही अपने तखत पर सो रहा था। अब हुआ यह कि आसपास जब भी वे कुत्ते भौंकते, यह कुत्ता भी भौंकता। आखिर यह उनके साथ क्यों भौंकता है? यह तो उन पर भौंकता है। जब वे मोहल्ले में भौंकते हैं तो यह भी उनकी आवाज़ में आवाज़ मिलाने लगता है, जैसे उन्हें आश्वासन देता हो कि मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे साथ हूँ।

मुझे इसके वर्ग पर शक़ होने लगा है। यह उच्चवर्गीय कुत्ता नहीं है। मेरे पड़ोस में ही एक साहब के पास थे दो कुत्ते। उनका रोब ही निराला! मैंने उन्हें कभी भौंकते नहीं सुना। आसपास के कुत्ते भौंकते रहते, पर वे ध्यान नहीं देते थे। लोग निकलते, पर वे झपटते भी नहीं थे। कभी मैंने उनकी एक धीमी गुर्राहट ही सुनी होगी। वे बैठे रहते या घूमते रहते। फाटक खुला होता, तो भी वे बाहर नहीं निकलते थे। बड़े रोबीले, अहंकारी और आत्मतुष्ट।

यह कुत्ता उन सर्वहारा कुत्तों पर भौंकता भी है और उनकी आवाज़ में आवाज़ भी मिलाता है। कहता है- ''मैं तुममें शामिल हूँ।'' उच्चवर्गीय झूठा रोब भी और संकट के आभास पर सर्वहारा के साथ भी- यह चरित्र है इस कुत्ते का। यह मध्यवर्गीय चरित्र है। यह मध्यवर्गीय कुत्ता है। उच्चवर्गीय होने का ढोंग भी करता है और सर्वहारा के साथ मिलकर भौंकता भी है। तीसरे दिन रात को हम लौटे तो देखा, कुत्ता त्रस्त पड़ा है। हमारी आहट पर वह भौंका नहीं, थोड़ा-सा मरी आवाज़ में गुर्राया। आसपास वे आवारा कुत्ते भौंक रहे थे, पर यह उनके साथ भौंका नहीं। थोड़ा गुर्राया और फिर निढाल पड़ गया। मैंने मेज़बान से कहा, ''आज तुम्हारा कुत्ता बहुत शांत है।''

मेजबान ने बताया, ''आज यह बुरी हालत में है। हुआ यह कि नौकर की गफ़लत के कारण यह फाटक से बाहर निकल गया। वे दोनों कुत्ते तो घात में थे ही। दोनों ने इसे घेर लिया। इसे रगेदा। दोनों इस पर चढ़ बैठे। इसे काटा। हालत ख़राब हो गई। नौकर इसे बचाकर लाया। तभी से यह सुस्त पड़ा है और घाव सहला रहा है। डॉक्टर श्रीवास्तव से कल इसे इंजेक्शन दिलाऊँगा।''
मैंने कुत्ते की तरफ़ देखा। दीन भाव से पड़ा था। मैंने अन्दाज़ लगाया। हुआ यों होगा-

यह अकड़ से फाटक के बाहर निकला होगा। उन कुत्तों पर भौंका होगा। उन कुत्तों ने कहा होगा, ''अबे, अपना वर्ग नहीं पहचानता। ढोंग रचता है। ये पट्टा और जंज़ीर लगाए हैं। मुफ़्त का खाता है। लॉन पर टहलता है। हमें ठसक दिखाता है। पर रात को जब किसी आसन्न संकट पर हम भौंकते हैं, तो तू भी हमारे साथ हो जाता है। संकट में हमारे साथ है, मगर यों हम पर भौंकेगा। हममें से है तो निकल बाहर। छोड़ यह पट्टा और जंज़ीर। छोड़ यह आराम। घूरे पर पड़ा अन्न खा या चुराकर रोटी खा। धूल में लोट।'' यह फिर भौंका होगा। इस पर वे कुत्ते झपटे होंगे। यह कहकर- ''अच्छा ढोंगी। दग़ाबाज़, अभी तेरे झूठे दर्प का अहंकार नष्ट किए देते हैं।''
इसे रगेदा, पटका, काटा और धूल खिलाई।
कुत्ता चुपचाप पड़ा अपने सही वर्ग के बारे में चिन्तन कर रहा है।

—हरिशंकर परसाईं

Wednesday, May 26, 2010

आरक्षण नहीं हक़ चहिये वो भी हमेशा के लिए पुरे 50 प्रतिशत

दुनिया में महिलाओं की दशा के बारे में बात करें तो अब तक के इतिहास में सोवियत संघ की महिलाओं की हालत सबसे बेहतर रही है. पर वो अब बीते दिनों की बात हो चुकी है, हमारे देश के महिला आन्दोलन यूरोप की तर्ज़ पर रहें हैं जो आम महिला जन आन्दोलन के स्वरुप की बजाय मध्यवर्गीय शहरी महिलाओं के वर्ग में ज्यादा केन्द्रित दिख रहा है , लेंगिक भेदभाव को लेकर उठे आन्दोलन का प्रभाव पूरी दुनिया के साथ साथ भारत में भी पड़ा है नतीजे में कुछ कल्याणकारी कानून और योजनाए भी बनी है, पर भारत में यूरोप की तरह केवल लेंगिक भेदभाव ही नहीं सामाजिक और जाति आधारित भेदभाव भी है जो यूरोप अमेरिका में नहीं दिखाई देता है यहाँ महिला के साथ दोहरा शोषण है. होलीवूड की फिल्मो की नायिका मर्दों की तरह जहाँ दुश्मनों से टक्कर लेती फिल्माई जाती है वही भारतीय फिल्मो की नायिका नायक पर पूरी तरह से आश्रित है और अपनी भूमिका में वो केवल पेड़ के चारों और नायक के साथ घूम कर गाना गाती है.
यूरोप अमेरिका और भारत की महिला में विद्यमान सामाजिक अंतर हमे इनकी फिल्मो से ही प्रतीत हो जाता है.
. , नई आर्थिक निति और उदारीकरण के बाद महिलाओं की दशा को नए ढंग से परिभाषित किया गया है. हमे इस परिपेक्ष में महिलाओं का बाजारवादी ताकतों से जोड़े गए स्त्री विमर्श के बारे में भी चिंतन करना चहिये क्योंकि महिला का इसी काल में नए ढंग से शोषण शुरू हुआ है. महिला को वस्तु की तरह बाज़ार में उतारा है. इसी काल में भारत देश में विश्व और त्रि-भुवन सुन्दरियों ने रातों-रात जन्म ले लिया. और इस प्रकार सती सावित्री और सीता के देश में महिलाओं की देह का भोंडा प्रदशर्न आरम्भ हुआ. ये सकारात्मक पहलु रहा की महिलाओं ने पर्दा त्याग कर पुरुषों की भांति अपनी भूमिका निभानी शुरू की पर डाक्टर लोहिया के सपनो की शशक्त महिला की तरह नहीं हो के वो के कम्पनी के उत्पाद की तरह नए कलेवर में बाज़ार में आ रही हैं. पर इसका दूसरा पक्ष ये है की भारत की ग्रामीण महिला आज भी उसी माहोल में है जहाँ वो सदियों से रहती आई है. ये पुरुषवादी व्यवस्था का नया नाटक है जो महिला वादी होने का किया जा रहा है असल में देश की आम और खास महिला को ये भी मालूम नहीं है है वर्तमान सामाजिक व्यवस्था की प्रतिबिम्ब ये राजनितिक व्यवस्था उसके हितो को कभी पूरा नहीं होने देगी और इन हालात में चाहे उसे आरक्षण मिल जाये वो अपने मन का नहीं कर सकती
संगठित महिला आन्दोलन के 100 साल होने के उपलक्ष में महिला आरक्षण की मांग जोरों से उठ रही है पर देश के तमाम महिला वादी पेरोकारों को इस देश की महिला की आर्थिक सामाजिक और राजनेतिक कुव्वत को नज़रंदाज़ नहीं करना चहिये और राजनीती के वर्तमान चरित्र को देखते हुए इस बात को भी ध्यान में रखना चहिये की क्या वर्तमान राजनेतिक स्वरुप में इस देश की दलित और पिछड़ी महिला अपनी भागीदारी निभा पाएगी, शायद नहीं, रंगनाथ मिश्र और पूर्व में काका कालेलकर की रिपोर्टो में महिलाओं को पिछड़ा माना था. इस आधार पर हम हमारे सामाजिक परिवेश को देखें तो पता चलेगा की हमारे समाज में सभी महिलाओं की दशा ख़राब है चाहे वो किसी भी जाती या धर्म की हो पर ये कटु सत्य है की गरीब और आदिवासी महिला की दशा और स्वर्ण जाति की महिलाओं की तुलना में ज्यदा खराब है तथा आरक्षण में इस प्रकार की महिलाएं आगे नहीं आती है तो आरक्षण का क्या लाभ.
आरक्षण की मांग के साथ निम्न मसलों पर भी विचार किया जाना चहिये.

आरक्षण नहीं हक़ चहिये वो भी हमेशा के लिए पुरे 50 प्रतिशत
राजनितिक दलों के भीतर भी पूरा अधिकार कायम होना चहिये
केवल लोक सभा और विधान सभा में सीट नहीं 50 प्रतिशत पद भी चहिये
महिलाओं के मसलो के बारे में लेखन कभी भली भांति नहीं किया गया हमारे देश में महिलाओं के बारे में विमर्श और लेखन करने वाले बहूत ही कम लेखक हुए है इनमे भी पुरुष ज्यादा रहे हैं इस कारण महिलाओं की पीड़ा बाहर नहीं आ सकी है

मांगीलाल गुर्जर
http://communityforestright.blogspot.com/2010/05/blog-post_20.html

Monday, May 24, 2010

यु पी ए की सरकार महिला आरक्षण बिल क्यों नहीं पारित करना चाहती है

महिला आरक्षण बिल वर्तमान में तीन प्रकार के मतों में बंटा हुआ है, पहला वो जो बाहरी मन से इसके पक्ष में है वो है कांग्रेस, बी जे पी, वामदल, और इनके कुछ अन्य सहयोगी, दुसरे वो जिसमे यादव तिकड़ी आती है, यानि लालू, मुलायम, और शरद, शरद ने तो मोजुदा स्वरुप में इसे पेश करने के विरोध में जहर खाने की धमकी दे रखी है, कांग्रेस भी इनकी इस धमकी से नकली तौर पर डरने या यूँ कहें की आम सहमती नहीं है इसलिए बिल पेश नहीं करेंगे कह कर इस बिल को पेश करने से लगभग पल्ला झाड चुकी है. तीसरे वो हैं जो सामाजिक गैर राजनेतिक संगठन हैं जो सड़क पर इस बिल को पारित कराने के लिए मोर्चा खोले बेठे हैं,
जिस दिन राज्य सभा में ये बिल पारित हुआ उस दिन महिला सांसदों ने मिठाई बाँट कर अपनी नकली ख़ुशी जाहिर की, असली ख़ुशी इसलिए नहीं रही क्योंकि ये वो महिला सांसद हैं जिनकी राजनीती के बाज़ार में दुकान जमी हुई है और वो नहीं चाहती है की उनके रास्ते में कोई में रुकावट या प्रतिस्पर्धा पैदा हो. पर देश के आधे महिला वोटरों को राजी करने के लिए उनको अपने चहेरे पर नकली ही सही पर ख़ुशी तो दिखानी ही थी.
बेचारी कांग्रेस के हाथों से जब मुसलमान वोट खिसके हैं लालू मुलायम इन वोंटो को अपने हाथ से किसी भी सूरत में निकल देना नहीं चाहते इसलिए वो कहते हैं की मोजुदा महिला बिल में अल्पसंख्यकों और दलितों आदिवासियों के लिए गुंजाईस नहीं है, कांग्रेस को भी डर सता रहा है इसलिए उसने भी इस भूत को जगाना अभी जरुरी नहीं समजा और कह दिया की आमसहमति नहीं बनी है.
पर सड़क पर खड़े स्वयंसेवी सामाजिक संगठनों को कौन समजाये उन्होंने तो मोर्चा खोल दिया की बिल पारित होना चहिये. पर इनका दबाव कितना कारगर होगा ये शंकाओं से भरा हुआ है. हमारे देश में गैर राजनेतिक आंदोलनों का भविष्य कभी लम्बा और प्रभावी नहीं रहा है. गैर राजनेतिक आन्दोलनों को जन समर्थन भी सिमित ही मिलता है इसका कारण शायद अधिकांश ये आन्दोलन प्रायोजित और नकली होते हैं, कुछ सामाजिक संगठन ईमानदारी से करना भी चाहते हैं तो इनकी ही बिरादरी के इनकी टांग खीचने लग जाते हैं.
यु पी ए की सरकार महिला आरक्षण बिल क्यों नहीं पारित करना चाहती है क्योंकि उसकी मंशा बिलकुल नहीं है. वो क्यों नहीं चाहती ये बहस का विषय हो सकता है.

इस बहस के केंद्र में एक और सवाल है जिस पर चर्चा होनी चाहिए। आखिर वो वजहें कौन सी हैं जिनकी वजह से यह सरकार दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की मांगों को खारिज कर रही है। यह एक पेंचीदा सवाल है और इसका जवाब सीधा और सरल नहीं हो सकता।

संसदीय व्यवस्था में दलितों और पिछड़ों को आरक्षण पहले से तय है। उनके लिए सीटें आरक्षित पहले हैं। अभी इसी साल फरवरी में 109वें संशोधन के जरिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के आरक्षण को दस साल के लिए बढ़ाया गया है। ऐसे में महिला आरक्षण बिल में भी बिना कहे उनके लिए प्रावधान किया जाना चाहिए था। लेकिन यह प्रावधान नहीं किया गया।

यहां पर बहुत से लोग यह कहते हैं कि महिलाएं भी दलित हैं और जिस तरह दलितों को बांटना सही नहीं है, वैसे ही महिलाओं को भी बांटना सही नहीं होगा। बात पूरी तरह सही है। मर्दों की बनाई इस दुनिया में महिलाएं सबसे बड़ी दलित हैं। आबादी और जुल्म दोनों लिहाज से। एक पंडित भी अपने घर की महिला का शोषण करता है और एक दलित भी अपने घर की महिला को दलित बना कर रखता है। डिग्री का फर्क हो सकता है। लेकिन महिलाएं किसी तबके में आज़ाद नहीं है।

लेकिन इस तर्क के साथ यह भी एक सनातन सत्य है कि महिलाएं हिंदू भी होती हैं और मुसलमान भी। महिलाएं पंडित भी होती हैं और दलित भी। महिलाएं ठाकुर भी होती हैं और आदिवासी भी। जब समाज में यह विभाजन पहले से मौजूद है तो आरक्षण में इसका प्रावधन कर देने से कौन का अंतर पड़ जाएगा? यही नहीं जो नेता महिला आरक्षण में विभाजन का विरोध कर रहे हैं उनमें से बहुतों ने अपने शासन में इसी तरह का विभाजन किया और करवाया है। नीतीश कुमार ने बिहार में सियासी फायदे के लिए अति पिछड़ों का नारा दिया। यह क्या था? पिछड़ों को बांटने की कोशिश। ठीक उसी तरह राजस्थान में गुर्जरों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने की सिफारिश और बाद में अलग से प्रावधान करने का कदम बीजेपी के शासन काल में हुआ था। यह क्या था? इसलिए विभाजन की दलील बेहद बेतुकी और बेबुनियाद है। सभी संवेदनशील लोगों को इस दलील का विरोध करना चाहिए।

दरअसल, महिला आरक्षण बिल में दलितों और आदिवासियों के लिए भी प्रावधान नहीं किए जाने का एक ख़ास मकसद है। अगर इस बिल में यह प्रावधान किया गया तो उससे महिलाओं को विभाजित नहीं करने की दलील ख़त्म हो जाएगी। ऐसा हुआ तो पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के बागी तेवर को संभालना आसान नहीं होगा। सियासत का चेहरा मौकापरस्त चेहरा है। अगर पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का दबाव अधिक बढ़ा तो मजबूरी में उनके लिए भी प्रावधान बनाना पड़ सकता है। अगर महिला आरक्षण में यह प्रावधान किया गया तो बाकी बची सीटों पर भी पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को उसी अनुपात में हिस्सेदारी देनी पड़ेगी। सवर्ण सांसद और हुक्मरान इतनी बड़ी कीमत चुकाने को फिलहाल तैयार नहीं। और इसी से उनका जातिवादी चेहरा सामने आ जाता है।

ऐसे में एक ही उपाय बचता था कि महिला आरक्षण बिल को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता। अगर ऐसा होता तो इस पर किसी को एतराज नहीं होता। न पिछडों को, न दलितों, न आदिवासियों और न ही अल्पसंख्यकों को। देश के ज़्यादातर सांसद इससे खुश भी रहते। लेकिन सोनिया गांधी समेत चंद नेताओं ने सियासी फायदे के लिए इस बिल को आगे बढ़ा दिया।

महिलाओं को आरक्षण का मुद्दा एक और लिहाज से अनूठा है। नौकरियों में महिलाओं की हिस्सेदारी नहीं के बराबर है। शिक्षा संस्थानों में भी यही हाल है। देश की ज़्यादातर लड़कियों को अपनी पढ़ाई दसवीं से पहले ही छोड़ देनी पड़ती है। जरूरत उनके लिए आर्थिक योजनाएं शुरू करने की थी। नौकरियों और उच्च शिक्षा संस्थानों में उनके लिए सीटें आरक्षित करने की थीं। कानून और व्यवस्था सुधारने की थी ताकि वो घरों से बाहर निकलते वक़्त सुरक्षित महसूस कर सकें। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्हें सीधे संसद में हिस्सेदारी दी जा रही है। इन तमाम स्थितियों पर गौर करने पर बस एक ही जवाब आता है। महिला आरक्षण बिल कुछ और नहीं है, सिर्फ़ और सिर्फ़ ताक़तवर सवर्णों की सियासी साज़िश है। और इस साज़िश में कांग्रेस, बीजेपी के साथ लेफ्ट भी शामिल है।

मांगीलाल गुर्जर

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Thursday, May 20, 2010

मुझे नहीं लगता की महिला आरक्षण मिल जाएगा

विभिन्न पार्टियों की तीव्र बहस के बाद भारतीय लोक सभा आखिरकार 16 मार्च तारीख को संपन्न हुई। लोकमतों द्वारा केन्द्रित 33 प्रतिशत महिला आरक्षण विधेयक प्रस्ताव पूर्व योजनानुसार इस दिन पारित नहीं हो पायी । भारतीय न्याय मंत्री मोइली ने इसी दिन नयी दिल्ली में मीडियाओं से कहा कि कांग्रेस पार्टी सरकार अन्य विभिन्न पार्टियों की एकमता न पाने की स्थिति में जबरदस्ती इस प्रस्ताव को पारित नहीं करना चाहती है।

ये अलग बात है की अमेरिका के साथ परमाणु समजोता करने के लिए मरी जा रही कांग्रेस ने उस समय इस प्रकार एकमत होने की न तो बात की थी और न ही इसकी प्रतीक्षा. सही बात तो ये है की कांग्रेस भी नहीं चाहती है की महिलाओं को 33 % आरक्षण मिल जाये. जो पार्टियाँ महिलाओं के होटों का ढोल पीट रही है वे अपने गिरेंबान में झांक कर देखे की इन्होने अपनी पार्टी के 33 पदों पर क्या महिलाओं को रखा हुआ है शायद नहीं. महिलाओं का मसला छोड़ो क्या दलितों और आदिवासियों को समुचित स्थान दे रखा है शायद नहीं. असल में ये मुद्दा है महंगाई और आतंकवाद जेसे मसलों से जनता का ध्यान हटाने के लिए.

इसी माह की 9 तारीख को भारतीय राज्य सभा ने बहुमत वोटों से संविधान की 108 धारा संशोधन प्रस्ताव पारित कर दिया। इस संशोधन प्रस्ताव के मुताबिक भारत की केन्द्रीय व विधान सभा को अवश्य महिला के लिए 33 प्रतिशत सीटें सुरक्षित रखनी होगी। उक्त भारतीय संशोधन कानून के अनुसार, इस प्रस्ताव को संसद के दो सदनों की दो तिहाई बहुमत से पारित होने पर ही प्रभाव में डाला जा सकता है। उस समय लोकमतों की आम राय थी कि हालांकि कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली गठबन्धन सरकार को संसद की लोक सभा में बहुमत सीटें हासिल हैं , और उधर विपक्षी भारतीय जनता पार्टी ने भी इस प्रस्ताव पर भी समर्थन जताया है, इस लिए लोक सभा में इस प्रस्ताव का पारित होने में कोई बाधा नहीं होगी। परन्तु आने वाले कुछ दिनों में भारतीय राजनीति मंच में विभिन्न पार्टियों ने अपने हितों को ध्यान में रखते हुए 9 तारीख से पार्टियों के बीच अनेक नौंक भौंक शुरू कर उसपर आपत्ति उठायी , जिस से इस महिला आरक्षण विधेयक को एक अनिश्चितकाल के भविष्य पर पहुंचा दिया गया।

केन्द्रीय और विधान सभा के दो सदनों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित प्रस्ताव 1996 में तत्कालीन गोडा सरकार द्वारा पेश की गयी थी, लेकिन तब से वे अब तक भारतीय संसंद में पारित नहीं हो पायी है।

लोगों आश्चर्य चकित हैं कि भारत आखिर क्यों इस आसाधारण प्रस्ताव को पारित करना चाहता है ? इस का भारत में महिला की स्थिति से घनिष्ठ संबंध है। भारतीय महिला ने सौ सालों की कड़ी मेहनत से हालांकि धीरे धीरे पुरूष जैसी राजनीतिक अधिकार समानता हासिल करने में थोड़ी बहुत प्रगति की है, तो भी पूर्ण रूप से महिला अब भी कमजोर स्थान में पड़ी हुई हैं। भारतीय महिला लम्बे अर्से से राजनीति में भाग लेने व प्रशासन में अपनी राय प्रस्तुत करने तथा संपति अधिकार पाने में वंचित रही हैं। पिछली शताब्दी के 90 वाले दशक से भारत में अर्थतंत्र का पुनरूत्थान शुरू होने के बाद से महिला सामाजिक जीवन में अधिकाधिक प्रफुल्लित होने लगी और तब से भारतीय महिला के अपने अधिकार व हित से संबंधित अधिकारों को पाने की सामाजिक आधार धीरे धीरे परिपक्व होने लगी हैं। इसी पृष्ठभूमि तले, भारत के संविधान नम्बर 108 धारा संशोधन प्रस्ताव को औपचारिक रूप से संसद की कार्यसूची में दाखिल किया गया।

महिला आरक्षण विधेयक प्रस्ताव भारतीय महिलाओं के सामाजिक स्थान को उन्नत करने व भारतीय समाज की प्रगति के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्ध होता है। तो क्यों समाजवादी और राष्ट्रीय जनता दल आदि कुछेक पार्टियां इस का विरोध कर रही हैं ? विश्लेषकों ने कहा है कि भारत की दो मुख्य पार्टी कांग्रेस व भाजपा लम्बे अर्से से बुनियादी इकाईयों की जनता में अपनी गतिविधियां चलाती आयी हैं , इस लिए उनके पास बहु मतदाता हैं और उनको बहुत सी सर्वश्रेष्ठ महिला राजनीतिज्ञों का भी समर्थन प्राप्त हैं। यदि ये दो पार्टियां महिला आरक्षण विधेयक को सहमति देते हैं तो उन्हें अधिक वोट हासिल हो सकते हैं और उनका राजनीतिक क्षेत्र बढ़ सकता है। जबकि समाजवादी व राष्ट्रीय जनता दल आदि छोटी पार्टियों की संसद में सींटे इतनी संतोषजनक नहीं हैं, और तो और इन पार्टियों के मतदाता आम तौर पर समाज के निचले वर्ग के जन समूह हैं, सर्वश्रेष्ठ महिला राजनीतिज्ञों का नामोनिशान तक नहीं हैं। यदि कांग्रेस और भाजपा संसद में जबरन इस प्रस्ताव को पारित करती है तो ये छोटी पार्टियां गठबन्धन सत्तारूढ़ सरकार के खिलाफ खड़ी हो सकती हैं और विपक्ष पार्टी हाथ धरे बैठे इस का लाभ उठा सकती हैं। इस कारण कांग्रेस सरकार को इस समस्या पर संजीदगी से विचार करना बहुत ही अनिवार्य है। विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस महिला आरक्षण विधेयक को जबरन पारित कर अपने राजनीतिक स्थान को जोखिमता में नहीं डालेगी।पर काफी हद तक लालूप्रसाद और मुलायम जेसे नेताओं के तर्क ठीक लगते हैं की महिलाओं को 33 % आरक्षण मिलने पर भी गरीब और दलित वर्ग की महिलाओं की बजाय कार्पोरेट सेक्टर और सामंती वर्ग की महिलाओं को ही इसका लाभ मिलेगा ये बात है भी सही क्योंकि जिस देश की संसद में 350 सांसद करोडपति हो और गरीब पुरुष सांसद को भी आज लोकसभा में पहुंचना लगभग असंभव लग रहा हो इसे माहोल में गरीब महिला का संसद में पहुंचना एक ख़ूबसूरत सपने जेसा ही है, हमारे देश में जहाँ एम् एल ए और एम् पी के टिकट बिक रहे हो वहां गरीब की हैसियत ही नहीं है की वो चुनाव में खड़ा हो जाये.

नवीनतम जारी एक जनमत संग्रह से पता चला है कि भारत की मीडिया इस विधेयक का समर्थन करती है, लेकिन जनता नहीं मानती है कि इस प्रस्ताव के पारित होने से महिला के हित व अधिकार में कोई असली सुधार होगा।मिडिया के समर्थन के पीछे बाज़ारवादी सोच है जो सीधा बहुरास्ट्रीय कम्पनियों से जुडा है जो उपभोक्ता सामग्री का निर्माण करती है और उसे बेचने के लिए महिला मोडल के रूप में मिडिया में एक बड़ी अहम् भूमिका निभा रही है इसके अलावा महिला एलोक्ट्रानिक मिडिया की सबसे बड़ी दर्शक है

भारतीय सामाजिक शास्त्र के विशेषज्ञों का मानना है कि हालांकि भारत के पास अनेक सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक महिलाएं तो हैं, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि भारत की महिलाओं को फिलहाल पुरूष जैसी समानता व अधिकार हासिल हो चुकी हैं, भारत महिला की अन्तिम मुक्ति भारत के सामाजिक अर्थतंत्र विकास पर निर्भर रहती है।क्योंकि सही मायने में महिला तभी स्वतंत्र होगी जब वो आर्थिक रूप से सक्षम बने और उसके द्वारा कमाए गए धन का भी वो खुद उपयोग करने का निर्णय ले सके जो अभी दूर दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहा है.

मांगीलाल गुर्जर

Wednesday, May 5, 2010

पुराने कानूनों से बरपा रहे हैं जुल्म, नए का इल्म नहीं




वन अधिकार कानून के पारित होने के बाद लघु वन उपज पर आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन वासियों का अधिकार हो गया है. अब ते समुदाय वनों से वन उपज का संग्रहण, उपभोग और अपनी आजीविका के लिए इसे सर बोझ, हाथ गाड़ी या साइकल द्वारा ला कर बेच भी सकते हैं,
पर वन अधिकार कानून के लागु होने के दो साल बाद भी राजस्थान की पुलिस इस कानून से बेखबर है और आये दिन इन समुदायों के लोगों पर वन अधिनियम 1927 के प्रावधानों के तहत मुकदमे बना रही है, राज्य की पुलिस को ये भी पता नहीं है की लघु वन उपज पर आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन वासियों का क़ानूनी अधिकार हो गया है, और इसी गफलत के कारण उदयपुर जिले में ही 5 से ज्यादा मुकदमे बना कर 15 से अधिक लोंगो को शहद, महुआ, आदि ले जाते हुए गिरफ्तार किया.
इस बारे में जब 26 मई को उदयपुर जिले की गोगुन्दा तहसील की सायरा पुलिस ने दो आदिवासियों को पकड़ा तो हमने पुलिस को उन आदिवासियों को वन अधिकार कानून का हवाला दे कर छोड़ने को कहा पर पुलिस का कहना था की उनके पास नए कानून की कोई जानकारी नहीं है और हमारे हिसाब से वन उपज का संग्रहण, उपभोग और परिवहन अपराध है, फिर हम कानून की किताब के साथ उदयपुर पुलिस रेंज के पुलिस महानिरीक्षक से मिले और उनको कानून के बारे में बताया, उन्होंने इसे अपनी गलती माना और ततकाल उदैपुर रेंज के सभी पुलिस थानों को जिला पुलिस अधीक्षकों के जरिये आदेश भिजवाया की किसी भी आदिवासी या अन्य परंपरागत वन वासियों को लघु वन उपज लेट हुए परेशान नहीं किया जाये.
मांगीलाल गुर्जर
उदयपुर

Wednesday, April 14, 2010

लीव इन रिलेशन शिप पर क़ानूनी कवच

लीव इन रिलेशन शिप पर क़ानूनी कवच

बालिग स्त्री पुरुष के बगैर विवाह किये साथ रहने में कोई बुराई है या नहीं इस बहस से पहले ये जानने की जरुरत है की कानून आज भी समय की मांग को देखते हुए बनांये जा रहें हैं, आज मेट्रो शहरों में एक वर्ग ऐसा पैदा हो गया है जो इसकी अपने जीवन में जरुरत भी महसूस करता है और उसे आजमाना भी, ये एक नया शगल है जो कालांतर में रिवाज और परंपरा भी बन जायेगा, जैसे जैसे शहरीकरण बढेगा और कथित सभ्यता का विकास होगा वैसे वैसे इस प्रकार के फैसले होते रहेंगे और शहरी समाज अपनी सुविधा अनुकूल व्यवस्थाओं का ढांचा खड़ा कर देगा, इसी क्रम में ही समलेंगिकता को कोर्ट ने बुरा नहीं माना, शायद इसकी भी आज के समाज में इस प्रकार के वर्ग को इसकी क़ानूनी जरुरत हुई है. असल में ये सब कुछ पहले भी था पर गैर सामाजिक और गैर प्राकतिक संबंधो को तब ठीक नहीं माना जाता था, आज बस इसे क़ानूनी जामा पहनाने की बात की जा रही है ताकि इसे खुला किया जा सके. निश्चित रूप से इस प्रकार के लोंगो की समाज में न केवल तादात बढ़ रही है बल्कि वे अपने तर्कों से इसे ठीक ठहरा रहें हैं, बगैर विवाह किये महिला पुरुष साथ रह सकते हैं, ये उनका निजी मामला है, पर इसे ना तो मुद्दा बनाने की जरुरे है और न ही कानून क्योंकि ये एक सामाजिक मसला है,और समाज को बदलने में समय लगेगा, असल में हमारा देश दो भागों में बंटा हुआ है, इंडिया में रहने वाले इसकी वकालत करते हैं तो भारत में रहने वाले आलोचना, भारत में रहने वाले अपनी परम्पराओं और रिवाजो का रोना रोते हैं तो विदेशो से या अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े अभिजात्य वर्ग के वो लोग जो इंडिया में रहते हैं, इसका समर्थन करते हैं, इंडिया पूरा बाजारवादी हो गया है जहाँ इस प्रकार के संबंधो से भी मुनाफा कमाया जा सकता है, बुराई के प्रति सहज आकर्षण को आधुनिकता कहते हैं, और आधुनिकता इंडिया के चम् चम् करते बाज़ारों में है भारत के गाँवो में नहीं, विपरीत लिंग के प्रति सहज आकर्षण को क़ानूनी कलेवर दिया जा रहा है ताकि वो बेरोकटोक बाज़ार में आ सके, पूंजीवादी नवध्नाध्य उच्य मध्यवर्ग ने अपने कॉरपरेट जगत में नए उत्पाद को क़ानूनी मुहर के साथ जारी किया है, आख़िरकार नए व्यापार आये हैं, फ्लेट संस्कृति फल फुल रही है इसके ग्राहक भी अब खूब होंगे,
भूल जाए वो दिन जब सुहागरात के दिन ही पत्नी की सूरत नज़र आती थी,

Saturday, April 10, 2010

राजस्थान में वन, पर्यावरण और जैव विविधता के अस्तित्व पर वन विभाग और तस्करों की कुल्हाड़ी


राजस्थान में वन, पर्यावरण और जैव विविधता के अस्तित्व पर वन विभाग और तस्करों की कुल्हाड़ी
राजस्थान के उदयपुर जिले की आदिवासी बाहुल्य कोटडा और झाडोल तहसीलों के जंगलों में वन विभाग की मिलीभगत से इस इलाके में विनाश की कगार पर पहुँच चुके सालर नाम की प्रजाति के पेड़ अब केवल 5 प्रतिशत ही बचे हैं, कभी इन जंगलों की सुन्दरता बढ़ाने वाला ये पेड़ संकट में पड़ गया हैं क्योंकि इस पेड़ के तने से निकलने वाले ओषधिय गुणों वाले गोंद पर इसका गैरकानूनी व्यापर करने वाले व्यापारियों की कुदृष्टि पड़ गई है.और वे वन विभाग की मिली भगत से इसका गोंद निकाल कर गुजरात के बाज़ार में बेच रहे हैं, इस पेड़ से गोंद निकालने का तरीका बड़ा ही विचित्र और निर्मम है, गोंद निकालने के लिए इसके तने में गहरे गहरे चीरे लगाये जाते हैं कुछ दिन बाद उन चिरों से गोंद निकलना शुरू हो जाता है पर पेड़ सुख जाता है क्योंकि इस पेड़ की जान इसके गोंद में ही होती है, और इसी कारण इस पेड़ का इस प्रकार के उपयोग पर सरकारी प्रतिबन्ध लगा दिया था, पर गैरकानूनी तरीके से चलने वाले इस व्यापर के कारण अब इस पेड़ की प्रजाति खतरे में पड़ गई है,
इस तहसील के तिलारनी, क्यारी, मेरपुर, मांडवा, कुकावास आदि गांवों के ग्रामीणों ने वन विभाग को इसकी सुचना भी दी पर या तो वन विभाग ने इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया या फिर वो भी इस गैर क़ानूनी काम में हिस्सेदार था, आख़िरकार लोग क्यारी पंचायत के सरपंच लाडूराम परिहार के पास गए (लाडूराम परिहार जंगल जमीन जन आन्दोलन और इज्जत से जीने के अधिकार अभियान(C S D ) से जुड़े हुए हैं) लाडूराम ने वन संरक्षक उदयपुर को दिनाक 8 अप्रैल को फ़ोन पर इसकी जानकारी दी तब उस समय वन संरक्षक महोदय किसी मीटिंग में व्यस्त थे और उनके निजी सचिव ने लाडूराम को बाद में बात करने को कहा पर देर रात तक भी फोन पर बात करने का प्रयास करने पर भी जेव विविधता और पर्यावरण का रोना रोने वाले तथा जंगल बर्बाद करने का ठीकरा आदिवासियों पर फोड़ने वाले विभाग के एक जिम्मेदार अधिकारी ने आदिवासियों की इस बात पर कार्यवाही करना उचित नहीं माना और इन वन संरक्षक महोदय ने इस मसले पर से पल्ला झाड़ने की कोशिस की, बाद में मिडिया में इस बात की खबर आने पर सुना है की पूरा विभागीय अमला मुह अँधेरे ही उदयपुर से 125 किलोमीटर दूर इन जंगलों में अपनी कारगुजारी छिपाने के लिए पहुँच चूका था,
इस इलाके के लोंगो ने वन अधिकार मान्यता कानून के तहत सामुदायिक वन अधिकार के दावे भी पेश कर रखे है पर वन विभाग उनको रोकने में लगा हुआ है लोंगो का कहना है की वन विभाग के कर्मचारी अगर ईमानदारी से काम करे तो भी जंगल नहीं बचा सकते क्योंकि मीलों में फैले हुए जंगल को तो वहां रहने वाले लोग ही बचा सकते हैं, पर वन विभाग लोंगो की इस बात से न तो इतफाक रखता है और न ही उनको वन बचाने में उनसे सहायता लेने में, हाँ वन विभाग यदा कदा लोंगो को अतिक्रमी बता कर बेदखल करने से नहीं चुकता है, तथा उनकी वन उपज को अवैध बता कर उन पर मुकदमा दर्ज करने से बाज़ नहीं आता, इस प्रकार के कई मामले सामे आ चुके है,
उल्लेखनीय है की दक्षिणी राजस्थान के जंगलों में कई प्रजातियों के पेड़ों का अस्तित्व खतरे में है, जिसमे सेमल नाम का पेड़ है इसके तने की होली बना कर जलाई जाती है इस कारण होली के अवसर पर इस पेड़ की भारी मात्रा में कटाई की जाती है इस कारण ये प्रजाति धार्मिक अन्धविश्वास और कर्मकांड की भेंट चढ़ रही है,
में कुछ पेड़ों और झाड़ियों के नाम उल्लेखित कर रहा हूँ जो इस प्रकार के गैरकानूनी व्यापर की भेंट चढ़ रही है जिस कारण राजस्थान के वनों से कुछ समय बाद इनको हम ढूढ़ते रह जायेंगे,
- पलाश (खाखरा ) इस पेड़ के तने में भी गोंद निकालने के लिए चीरा लगाया जाता है.तथा इसकी जड़ें पुताई करने के काम आती है साथ ही अन्य ओषधिय गुण भी होते है,
- धावडा इस पेड़ के तने में भी गोंद निकालने के लिए चीरा लगाया जाता है, दक्षिणी राजस्थान के जंगलों में कभी बहुताय में पाया जाने वाला पेड़ अब लगभग ख़तम होने के कगार पर है.
- कराया इस पेड़ का ताना फल सब कुछ काम आता है,
- गेंग्ची ये एक झाड़ी होती है जिसकी जड़ें जोड़ों के दर्द के लिए रामबाण दावा का काम करती है इसलिए इसे भी ढूंढ़ ढूंढ़ ख़त्म किया जा रहा है,
- धावडा इस इस पेड़ के तने में भी गोंद निकालने के लिए चीरा लगाया जाता है, दक्षिणी राजस्थान के जंगलों में पहाड़ों की सुन्दरता बढ़ाने वाला बहू उपयोगी तथा कभी बहुताय में पाया जाने वाला ये पेड़ अब लगभग ख़तम होने के कगार पर है. इसके गोंद का उपयोग महिलाओं को प्रसव के बाद आई कमजोरी को दूर करने के लिए किया जाता है,
- गोदल इस पेड़ के तने में भी गोंद निकालने के लिए चीरा लगाया जाता है, दक्षिणी राजस्थान के जंगलों में पहाड़ों की सुन्दरता बढ़ाने वाला बहू उपयोगी तथा कभी बहुताय में पाया जाने वाला ये पेड़ अब लगभग ख़तम होने के कगार पर है.
- कुर्वा इसकी जड़ें और छाल काम में आती है.
- सियां ये नदियों और नालों के किनारे पाई जाने वाली झाडी है इसकी जड़ें काम में आती है,
- सतावरी ये काफी जानी मानी झाड़ी है इसकी जड़ें आधा सर दुखने पर काम में ली जाती है इसके और भी कई गुण हैं,
- चन बैर इससे हम सभी परिचित होंगे इसके छोटे लाल बैर खाने के काम आते हैं पर इसकी जड़ों का गुण इस झाडी को भी ख़तम किये दे रहा है क्योंकि इसकी जड़ें दांतों के दर्द की दवा के रूप में काम आती है.
इन सभी पेड़ों के इस प्रकार के उपयोग पर क़ानूनी रोक है खास कर व्यापारिक रूप से किये जाने वाले उपयोग पर.
ये जानकारी लाडूराम ने अपने पारंपरिक ज्ञान के आधार पर दी जिसे में यहाँ लिख रहा हूँ.
ये पेड़ और झाड़ियाँ कभी इन जंगलों की शान हुआ करते थे तथा राजस्थान की जलवायु के अनुसार ये प्राकतिक रूप से जंगलों में मिल जाते थे तथा गर्मी के दिनों में ये मई महीने के बाद नए पत्ते आने पर मवेशियों के लिए खुराक राहगीरों और ग्रामीणों के लिए छाया का काम और शहरों में रहने वालों को ताज़ा हवा पहुचाने का काम करते थे, साथ ही जेव विविधता को बनाये रखते थे,
इन पेड़ों का ओषधिय उपयोग करना बुरा नहीं है पर वन विभाग ये बताये की इसका गैरकानूनी व्यापार करना और इतने बड़े पैमाने पर करना की इनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाये, तथा लापरवाही की हद ये की इनके नए पोधरोपन ही नहीं करना, सही बात तो ये है की बड़े बड़े आई , एफ , एस अफ़सर केवल गार्डन में विदेशी पोधे और मोनोकल्चर करना जानते हैं और स्थानीय लोंगो को मुर्ख समझते हैं, परिणाम ये हो रहा है की जंगलों में रहने वाले लोग जंगलों से दूर हो रहे हैं और जंगलों में अफसरों और तस्करों के डेरे जम गए हैं,
राजस्थान सरकार ने पिछले बरसात के मोसम हरित राजस्थान अभियान के तहत में डूंगरपुर जिले में एक ही दिन में लगभग 7 लाख पोधे लगा कर गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में अपना नाम लिखवा दिया, इससे पहले ये रिकॉर्ड पाकिस्तान के नाम था, पर कुछ ही दिनों के बाद समाचार पत्रों में छपा की पोधे सूखने का भी वर्ल्ड रिकॉर्ड हमारे ही नाम हुआ.
कुछ महीने पहले जापान से एक प्रतिनिधि मंडल उदयपुर तीन दिवसीय पर्यावरण विषय पर आयोजित कार्यशाला में भाग लेने के लिए आया (जापान हमे पेड़ लगाने के लिए अरावली परियोजना के तहत पैसा देता है और सुना है की भारत के जंगलों से ताज़ी हवाएं प्रशांत महासागर के रास्ते जापान जाती है जिससे वे लोग सेहतमंद रहते हैं) इस प्रतिनिधि मंडल को उदयपुर की एक पांच सितारा होटल में न केवल रुकवाया गया और कार्यशाला भी वहीँ की बल्कि राज्य से आये अन्य अफसरों ने भी इसका लाभ उठाया, इस फिजूलखर्ची की खुद मुख्यमंत्री ने उस कार्यशाला में ही आलोचना की थी.
कुल मिला कर वन विभाग के इस जंगल राज़ में जंगल को ही नुक्सान हो रहा है.