Monday, May 24, 2010

यु पी ए की सरकार महिला आरक्षण बिल क्यों नहीं पारित करना चाहती है

महिला आरक्षण बिल वर्तमान में तीन प्रकार के मतों में बंटा हुआ है, पहला वो जो बाहरी मन से इसके पक्ष में है वो है कांग्रेस, बी जे पी, वामदल, और इनके कुछ अन्य सहयोगी, दुसरे वो जिसमे यादव तिकड़ी आती है, यानि लालू, मुलायम, और शरद, शरद ने तो मोजुदा स्वरुप में इसे पेश करने के विरोध में जहर खाने की धमकी दे रखी है, कांग्रेस भी इनकी इस धमकी से नकली तौर पर डरने या यूँ कहें की आम सहमती नहीं है इसलिए बिल पेश नहीं करेंगे कह कर इस बिल को पेश करने से लगभग पल्ला झाड चुकी है. तीसरे वो हैं जो सामाजिक गैर राजनेतिक संगठन हैं जो सड़क पर इस बिल को पारित कराने के लिए मोर्चा खोले बेठे हैं,
जिस दिन राज्य सभा में ये बिल पारित हुआ उस दिन महिला सांसदों ने मिठाई बाँट कर अपनी नकली ख़ुशी जाहिर की, असली ख़ुशी इसलिए नहीं रही क्योंकि ये वो महिला सांसद हैं जिनकी राजनीती के बाज़ार में दुकान जमी हुई है और वो नहीं चाहती है की उनके रास्ते में कोई में रुकावट या प्रतिस्पर्धा पैदा हो. पर देश के आधे महिला वोटरों को राजी करने के लिए उनको अपने चहेरे पर नकली ही सही पर ख़ुशी तो दिखानी ही थी.
बेचारी कांग्रेस के हाथों से जब मुसलमान वोट खिसके हैं लालू मुलायम इन वोंटो को अपने हाथ से किसी भी सूरत में निकल देना नहीं चाहते इसलिए वो कहते हैं की मोजुदा महिला बिल में अल्पसंख्यकों और दलितों आदिवासियों के लिए गुंजाईस नहीं है, कांग्रेस को भी डर सता रहा है इसलिए उसने भी इस भूत को जगाना अभी जरुरी नहीं समजा और कह दिया की आमसहमति नहीं बनी है.
पर सड़क पर खड़े स्वयंसेवी सामाजिक संगठनों को कौन समजाये उन्होंने तो मोर्चा खोल दिया की बिल पारित होना चहिये. पर इनका दबाव कितना कारगर होगा ये शंकाओं से भरा हुआ है. हमारे देश में गैर राजनेतिक आंदोलनों का भविष्य कभी लम्बा और प्रभावी नहीं रहा है. गैर राजनेतिक आन्दोलनों को जन समर्थन भी सिमित ही मिलता है इसका कारण शायद अधिकांश ये आन्दोलन प्रायोजित और नकली होते हैं, कुछ सामाजिक संगठन ईमानदारी से करना भी चाहते हैं तो इनकी ही बिरादरी के इनकी टांग खीचने लग जाते हैं.
यु पी ए की सरकार महिला आरक्षण बिल क्यों नहीं पारित करना चाहती है क्योंकि उसकी मंशा बिलकुल नहीं है. वो क्यों नहीं चाहती ये बहस का विषय हो सकता है.

इस बहस के केंद्र में एक और सवाल है जिस पर चर्चा होनी चाहिए। आखिर वो वजहें कौन सी हैं जिनकी वजह से यह सरकार दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की मांगों को खारिज कर रही है। यह एक पेंचीदा सवाल है और इसका जवाब सीधा और सरल नहीं हो सकता।

संसदीय व्यवस्था में दलितों और पिछड़ों को आरक्षण पहले से तय है। उनके लिए सीटें आरक्षित पहले हैं। अभी इसी साल फरवरी में 109वें संशोधन के जरिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के आरक्षण को दस साल के लिए बढ़ाया गया है। ऐसे में महिला आरक्षण बिल में भी बिना कहे उनके लिए प्रावधान किया जाना चाहिए था। लेकिन यह प्रावधान नहीं किया गया।

यहां पर बहुत से लोग यह कहते हैं कि महिलाएं भी दलित हैं और जिस तरह दलितों को बांटना सही नहीं है, वैसे ही महिलाओं को भी बांटना सही नहीं होगा। बात पूरी तरह सही है। मर्दों की बनाई इस दुनिया में महिलाएं सबसे बड़ी दलित हैं। आबादी और जुल्म दोनों लिहाज से। एक पंडित भी अपने घर की महिला का शोषण करता है और एक दलित भी अपने घर की महिला को दलित बना कर रखता है। डिग्री का फर्क हो सकता है। लेकिन महिलाएं किसी तबके में आज़ाद नहीं है।

लेकिन इस तर्क के साथ यह भी एक सनातन सत्य है कि महिलाएं हिंदू भी होती हैं और मुसलमान भी। महिलाएं पंडित भी होती हैं और दलित भी। महिलाएं ठाकुर भी होती हैं और आदिवासी भी। जब समाज में यह विभाजन पहले से मौजूद है तो आरक्षण में इसका प्रावधन कर देने से कौन का अंतर पड़ जाएगा? यही नहीं जो नेता महिला आरक्षण में विभाजन का विरोध कर रहे हैं उनमें से बहुतों ने अपने शासन में इसी तरह का विभाजन किया और करवाया है। नीतीश कुमार ने बिहार में सियासी फायदे के लिए अति पिछड़ों का नारा दिया। यह क्या था? पिछड़ों को बांटने की कोशिश। ठीक उसी तरह राजस्थान में गुर्जरों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने की सिफारिश और बाद में अलग से प्रावधान करने का कदम बीजेपी के शासन काल में हुआ था। यह क्या था? इसलिए विभाजन की दलील बेहद बेतुकी और बेबुनियाद है। सभी संवेदनशील लोगों को इस दलील का विरोध करना चाहिए।

दरअसल, महिला आरक्षण बिल में दलितों और आदिवासियों के लिए भी प्रावधान नहीं किए जाने का एक ख़ास मकसद है। अगर इस बिल में यह प्रावधान किया गया तो उससे महिलाओं को विभाजित नहीं करने की दलील ख़त्म हो जाएगी। ऐसा हुआ तो पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के बागी तेवर को संभालना आसान नहीं होगा। सियासत का चेहरा मौकापरस्त चेहरा है। अगर पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का दबाव अधिक बढ़ा तो मजबूरी में उनके लिए भी प्रावधान बनाना पड़ सकता है। अगर महिला आरक्षण में यह प्रावधान किया गया तो बाकी बची सीटों पर भी पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को उसी अनुपात में हिस्सेदारी देनी पड़ेगी। सवर्ण सांसद और हुक्मरान इतनी बड़ी कीमत चुकाने को फिलहाल तैयार नहीं। और इसी से उनका जातिवादी चेहरा सामने आ जाता है।

ऐसे में एक ही उपाय बचता था कि महिला आरक्षण बिल को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता। अगर ऐसा होता तो इस पर किसी को एतराज नहीं होता। न पिछडों को, न दलितों, न आदिवासियों और न ही अल्पसंख्यकों को। देश के ज़्यादातर सांसद इससे खुश भी रहते। लेकिन सोनिया गांधी समेत चंद नेताओं ने सियासी फायदे के लिए इस बिल को आगे बढ़ा दिया।

महिलाओं को आरक्षण का मुद्दा एक और लिहाज से अनूठा है। नौकरियों में महिलाओं की हिस्सेदारी नहीं के बराबर है। शिक्षा संस्थानों में भी यही हाल है। देश की ज़्यादातर लड़कियों को अपनी पढ़ाई दसवीं से पहले ही छोड़ देनी पड़ती है। जरूरत उनके लिए आर्थिक योजनाएं शुरू करने की थी। नौकरियों और उच्च शिक्षा संस्थानों में उनके लिए सीटें आरक्षित करने की थीं। कानून और व्यवस्था सुधारने की थी ताकि वो घरों से बाहर निकलते वक़्त सुरक्षित महसूस कर सकें। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्हें सीधे संसद में हिस्सेदारी दी जा रही है। इन तमाम स्थितियों पर गौर करने पर बस एक ही जवाब आता है। महिला आरक्षण बिल कुछ और नहीं है, सिर्फ़ और सिर्फ़ ताक़तवर सवर्णों की सियासी साज़िश है। और इस साज़िश में कांग्रेस, बीजेपी के साथ लेफ्ट भी शामिल है।

मांगीलाल गुर्जर

http://communityforestright.blogspot.com/2010/05/blog-post_20.html

No comments: