लीव इन रिलेशन शिप पर क़ानूनी कवच
बालिग स्त्री पुरुष के बगैर विवाह किये साथ रहने में कोई बुराई है या नहीं इस बहस से पहले ये जानने की जरुरत है की कानून आज भी समय की मांग को देखते हुए बनांये जा रहें हैं, आज मेट्रो शहरों में एक वर्ग ऐसा पैदा हो गया है जो इसकी अपने जीवन में जरुरत भी महसूस करता है और उसे आजमाना भी, ये एक नया शगल है जो कालांतर में रिवाज और परंपरा भी बन जायेगा, जैसे जैसे शहरीकरण बढेगा और कथित सभ्यता का विकास होगा वैसे वैसे इस प्रकार के फैसले होते रहेंगे और शहरी समाज अपनी सुविधा अनुकूल व्यवस्थाओं का ढांचा खड़ा कर देगा, इसी क्रम में ही समलेंगिकता को कोर्ट ने बुरा नहीं माना, शायद इसकी भी आज के समाज में इस प्रकार के वर्ग को इसकी क़ानूनी जरुरत हुई है. असल में ये सब कुछ पहले भी था पर गैर सामाजिक और गैर प्राकतिक संबंधो को तब ठीक नहीं माना जाता था, आज बस इसे क़ानूनी जामा पहनाने की बात की जा रही है ताकि इसे खुला किया जा सके. निश्चित रूप से इस प्रकार के लोंगो की समाज में न केवल तादात बढ़ रही है बल्कि वे अपने तर्कों से इसे ठीक ठहरा रहें हैं, बगैर विवाह किये महिला पुरुष साथ रह सकते हैं, ये उनका निजी मामला है, पर इसे ना तो मुद्दा बनाने की जरुरे है और न ही कानून क्योंकि ये एक सामाजिक मसला है,और समाज को बदलने में समय लगेगा, असल में हमारा देश दो भागों में बंटा हुआ है, इंडिया में रहने वाले इसकी वकालत करते हैं तो भारत में रहने वाले आलोचना, भारत में रहने वाले अपनी परम्पराओं और रिवाजो का रोना रोते हैं तो विदेशो से या अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े अभिजात्य वर्ग के वो लोग जो इंडिया में रहते हैं, इसका समर्थन करते हैं, इंडिया पूरा बाजारवादी हो गया है जहाँ इस प्रकार के संबंधो से भी मुनाफा कमाया जा सकता है, बुराई के प्रति सहज आकर्षण को आधुनिकता कहते हैं, और आधुनिकता इंडिया के चम् चम् करते बाज़ारों में है भारत के गाँवो में नहीं, विपरीत लिंग के प्रति सहज आकर्षण को क़ानूनी कलेवर दिया जा रहा है ताकि वो बेरोकटोक बाज़ार में आ सके, पूंजीवादी नवध्नाध्य उच्य मध्यवर्ग ने अपने कॉरपरेट जगत में नए उत्पाद को क़ानूनी मुहर के साथ जारी किया है, आख़िरकार नए व्यापार आये हैं, फ्लेट संस्कृति फल फुल रही है इसके ग्राहक भी अब खूब होंगे,
भूल जाए वो दिन जब सुहागरात के दिन ही पत्नी की सूरत नज़र आती थी,
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