दुनिया में महिलाओं की दशा के बारे में बात करें तो अब तक के इतिहास में सोवियत संघ की महिलाओं की हालत सबसे बेहतर रही है. पर वो अब बीते दिनों की बात हो चुकी है, हमारे देश के महिला आन्दोलन यूरोप की तर्ज़ पर रहें हैं जो आम महिला जन आन्दोलन के स्वरुप की बजाय मध्यवर्गीय शहरी महिलाओं के वर्ग में ज्यादा केन्द्रित दिख रहा है , लेंगिक भेदभाव को लेकर उठे आन्दोलन का प्रभाव पूरी दुनिया के साथ साथ भारत में भी पड़ा है नतीजे में कुछ कल्याणकारी कानून और योजनाए भी बनी है, पर भारत में यूरोप की तरह केवल लेंगिक भेदभाव ही नहीं सामाजिक और जाति आधारित भेदभाव भी है जो यूरोप अमेरिका में नहीं दिखाई देता है यहाँ महिला के साथ दोहरा शोषण है. होलीवूड की फिल्मो की नायिका मर्दों की तरह जहाँ दुश्मनों से टक्कर लेती फिल्माई जाती है वही भारतीय फिल्मो की नायिका नायक पर पूरी तरह से आश्रित है और अपनी भूमिका में वो केवल पेड़ के चारों और नायक के साथ घूम कर गाना गाती है.
यूरोप अमेरिका और भारत की महिला में विद्यमान सामाजिक अंतर हमे इनकी फिल्मो से ही प्रतीत हो जाता है.
. , नई आर्थिक निति और उदारीकरण के बाद महिलाओं की दशा को नए ढंग से परिभाषित किया गया है. हमे इस परिपेक्ष में महिलाओं का बाजारवादी ताकतों से जोड़े गए स्त्री विमर्श के बारे में भी चिंतन करना चहिये क्योंकि महिला का इसी काल में नए ढंग से शोषण शुरू हुआ है. महिला को वस्तु की तरह बाज़ार में उतारा है. इसी काल में भारत देश में विश्व और त्रि-भुवन सुन्दरियों ने रातों-रात जन्म ले लिया. और इस प्रकार सती सावित्री और सीता के देश में महिलाओं की देह का भोंडा प्रदशर्न आरम्भ हुआ. ये सकारात्मक पहलु रहा की महिलाओं ने पर्दा त्याग कर पुरुषों की भांति अपनी भूमिका निभानी शुरू की पर डाक्टर लोहिया के सपनो की शशक्त महिला की तरह नहीं हो के वो के कम्पनी के उत्पाद की तरह नए कलेवर में बाज़ार में आ रही हैं. पर इसका दूसरा पक्ष ये है की भारत की ग्रामीण महिला आज भी उसी माहोल में है जहाँ वो सदियों से रहती आई है. ये पुरुषवादी व्यवस्था का नया नाटक है जो महिला वादी होने का किया जा रहा है असल में देश की आम और खास महिला को ये भी मालूम नहीं है है वर्तमान सामाजिक व्यवस्था की प्रतिबिम्ब ये राजनितिक व्यवस्था उसके हितो को कभी पूरा नहीं होने देगी और इन हालात में चाहे उसे आरक्षण मिल जाये वो अपने मन का नहीं कर सकती
संगठित महिला आन्दोलन के 100 साल होने के उपलक्ष में महिला आरक्षण की मांग जोरों से उठ रही है पर देश के तमाम महिला वादी पेरोकारों को इस देश की महिला की आर्थिक सामाजिक और राजनेतिक कुव्वत को नज़रंदाज़ नहीं करना चहिये और राजनीती के वर्तमान चरित्र को देखते हुए इस बात को भी ध्यान में रखना चहिये की क्या वर्तमान राजनेतिक स्वरुप में इस देश की दलित और पिछड़ी महिला अपनी भागीदारी निभा पाएगी, शायद नहीं, रंगनाथ मिश्र और पूर्व में काका कालेलकर की रिपोर्टो में महिलाओं को पिछड़ा माना था. इस आधार पर हम हमारे सामाजिक परिवेश को देखें तो पता चलेगा की हमारे समाज में सभी महिलाओं की दशा ख़राब है चाहे वो किसी भी जाती या धर्म की हो पर ये कटु सत्य है की गरीब और आदिवासी महिला की दशा और स्वर्ण जाति की महिलाओं की तुलना में ज्यदा खराब है तथा आरक्षण में इस प्रकार की महिलाएं आगे नहीं आती है तो आरक्षण का क्या लाभ.
आरक्षण की मांग के साथ निम्न मसलों पर भी विचार किया जाना चहिये.
आरक्षण नहीं हक़ चहिये वो भी हमेशा के लिए पुरे 50 प्रतिशत
राजनितिक दलों के भीतर भी पूरा अधिकार कायम होना चहिये
केवल लोक सभा और विधान सभा में सीट नहीं 50 प्रतिशत पद भी चहिये
महिलाओं के मसलो के बारे में लेखन कभी भली भांति नहीं किया गया हमारे देश में महिलाओं के बारे में विमर्श और लेखन करने वाले बहूत ही कम लेखक हुए है इनमे भी पुरुष ज्यादा रहे हैं इस कारण महिलाओं की पीड़ा बाहर नहीं आ सकी है
मांगीलाल गुर्जर
http://communityforestright.blogspot.com/2010/05/blog-post_20.html
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