राज्य की भूमिका भले ही संसाधनों के प्रबधन और वितरण में उसका ये कह कर रही हो की उसने अपनी भूमिका को बखूबी निभाया है पर आज जो वैश्विक परिस्थतियाँ सामने है उससे लगता है राज्य प्राकतिक संसाधनों को समग्र समुदाय के लिए सहेजने में लगभग विफल रहा है। भारत में पिछले कुछ सालों से प्राकतिक संसाधनों से समुदाय का नियंत्रण खोता जा रहा है और इन संसाधनों को बड़े ओधोगिक प्रतिष्ठान और कम्पनियां इनका व्यवसायिक उपयोग करने की सारी सीमाएं पार कर चुकी है और इनका मकसद इन संसाधनों को कागज की मुद्रा में परिवर्तित करने में लग गया है। जैसे पानी को बेच कर रुपया कमाया जा रहा है। पत्थर को बेच कर, लकड़ी को बेच कर, जमीन को बेच कर यानि हर प्रकति की दी हुई अनमोल धरोहर को बेच कर इन सबको कागज के रूपये में बदला जा रहा है।
क्या हम इन सब प्राकतिक संसाधनों को रूपये में बदलने के बाद जब एक समय बाद ये सभी संसाधन ख़त्म हो जाएँगे तब हम क्या खायेंगे कैसे और कहाँ रहेंगे अगर इन सबका विकल्प नही है तो इन सब प्राकतिक संसाधनों को कागज के रूपये में बदलने का क्या लाभ।
मांगीलाल गुर्जर
उदयपुर
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