दुनिया में महिलाओं की दशा के बारे में बात करें तो अब तक के इतिहास में सोवियत संघ की महिलाओं की हालत सबसे बेहतर रही है. पर वो अब बीते दिनों की बात हो चुकी है, हमारे देश के महिला आन्दोलन यूरोप की तर्ज़ पर रहें हैं जो आम महिला जन आन्दोलन के स्वरुप की बजाय मध्यवर्गीय शहरी महिलाओं के वर्ग में ज्यादा केन्द्रित दिख रहा है , लेंगिक भेदभाव को लेकर उठे आन्दोलन का प्रभाव पूरी दुनिया के साथ साथ भारत में भी पड़ा है नतीजे में कुछ कल्याणकारी कानून और योजनाए भी बनी है, पर भारत में यूरोप की तरह केवल लेंगिक भेदभाव ही नहीं सामाजिक और जाति आधारित भेदभाव भी है जो यूरोप अमेरिका में नहीं दिखाई देता है यहाँ महिला के साथ दोहरा शोषण है. होलीवूड की फिल्मो की नायिका मर्दों की तरह जहाँ दुश्मनों से टक्कर लेती फिल्माई जाती है वही भारतीय फिल्मो की नायिका नायक पर पूरी तरह से आश्रित है और अपनी भूमिका में वो केवल पेड़ के चारों और नायक के साथ घूम कर गाना गाती है.
यूरोप अमेरिका और भारत की महिला में विद्यमान सामाजिक अंतर हमे इनकी फिल्मो से ही प्रतीत हो जाता है.
. , नई आर्थिक निति और उदारीकरण के बाद महिलाओं की दशा को नए ढंग से परिभाषित किया गया है. हमे इस परिपेक्ष में महिलाओं का बाजारवादी ताकतों से जोड़े गए स्त्री विमर्श के बारे में भी चिंतन करना चहिये क्योंकि महिला का इसी काल में नए ढंग से शोषण शुरू हुआ है. महिला को वस्तु की तरह बाज़ार में उतारा है. इसी काल में भारत देश में विश्व और त्रि-भुवन सुन्दरियों ने रातों-रात जन्म ले लिया. और इस प्रकार सती सावित्री और सीता के देश में महिलाओं की देह का भोंडा प्रदशर्न आरम्भ हुआ. ये सकारात्मक पहलु रहा की महिलाओं ने पर्दा त्याग कर पुरुषों की भांति अपनी भूमिका निभानी शुरू की पर डाक्टर लोहिया के सपनो की शशक्त महिला की तरह नहीं हो के वो के कम्पनी के उत्पाद की तरह नए कलेवर में बाज़ार में आ रही हैं. पर इसका दूसरा पक्ष ये है की भारत की ग्रामीण महिला आज भी उसी माहोल में है जहाँ वो सदियों से रहती आई है. ये पुरुषवादी व्यवस्था का नया नाटक है जो महिला वादी होने का किया जा रहा है असल में देश की आम और खास महिला को ये भी मालूम नहीं है है वर्तमान सामाजिक व्यवस्था की प्रतिबिम्ब ये राजनितिक व्यवस्था उसके हितो को कभी पूरा नहीं होने देगी और इन हालात में चाहे उसे आरक्षण मिल जाये वो अपने मन का नहीं कर सकती
संगठित महिला आन्दोलन के 100 साल होने के उपलक्ष में महिला आरक्षण की मांग जोरों से उठ रही है पर देश के तमाम महिला वादी पेरोकारों को इस देश की महिला की आर्थिक सामाजिक और राजनेतिक कुव्वत को नज़रंदाज़ नहीं करना चहिये और राजनीती के वर्तमान चरित्र को देखते हुए इस बात को भी ध्यान में रखना चहिये की क्या वर्तमान राजनेतिक स्वरुप में इस देश की दलित और पिछड़ी महिला अपनी भागीदारी निभा पाएगी, शायद नहीं, रंगनाथ मिश्र और पूर्व में काका कालेलकर की रिपोर्टो में महिलाओं को पिछड़ा माना था. इस आधार पर हम हमारे सामाजिक परिवेश को देखें तो पता चलेगा की हमारे समाज में सभी महिलाओं की दशा ख़राब है चाहे वो किसी भी जाती या धर्म की हो पर ये कटु सत्य है की गरीब और आदिवासी महिला की दशा और स्वर्ण जाति की महिलाओं की तुलना में ज्यदा खराब है तथा आरक्षण में इस प्रकार की महिलाएं आगे नहीं आती है तो आरक्षण का क्या लाभ.
आरक्षण की मांग के साथ निम्न मसलों पर भी विचार किया जाना चहिये.
आरक्षण नहीं हक़ चहिये वो भी हमेशा के लिए पुरे 50 प्रतिशत
राजनितिक दलों के भीतर भी पूरा अधिकार कायम होना चहिये
केवल लोक सभा और विधान सभा में सीट नहीं 50 प्रतिशत पद भी चहिये
महिलाओं के मसलो के बारे में लेखन कभी भली भांति नहीं किया गया हमारे देश में महिलाओं के बारे में विमर्श और लेखन करने वाले बहूत ही कम लेखक हुए है इनमे भी पुरुष ज्यादा रहे हैं इस कारण महिलाओं की पीड़ा बाहर नहीं आ सकी है
मांगीलाल गुर्जर
http://communityforestright.blogspot.com/2010/05/blog-post_20.html
Wednesday, May 26, 2010
Monday, May 24, 2010
यु पी ए की सरकार महिला आरक्षण बिल क्यों नहीं पारित करना चाहती है
महिला आरक्षण बिल वर्तमान में तीन प्रकार के मतों में बंटा हुआ है, पहला वो जो बाहरी मन से इसके पक्ष में है वो है कांग्रेस, बी जे पी, वामदल, और इनके कुछ अन्य सहयोगी, दुसरे वो जिसमे यादव तिकड़ी आती है, यानि लालू, मुलायम, और शरद, शरद ने तो मोजुदा स्वरुप में इसे पेश करने के विरोध में जहर खाने की धमकी दे रखी है, कांग्रेस भी इनकी इस धमकी से नकली तौर पर डरने या यूँ कहें की आम सहमती नहीं है इसलिए बिल पेश नहीं करेंगे कह कर इस बिल को पेश करने से लगभग पल्ला झाड चुकी है. तीसरे वो हैं जो सामाजिक गैर राजनेतिक संगठन हैं जो सड़क पर इस बिल को पारित कराने के लिए मोर्चा खोले बेठे हैं,
जिस दिन राज्य सभा में ये बिल पारित हुआ उस दिन महिला सांसदों ने मिठाई बाँट कर अपनी नकली ख़ुशी जाहिर की, असली ख़ुशी इसलिए नहीं रही क्योंकि ये वो महिला सांसद हैं जिनकी राजनीती के बाज़ार में दुकान जमी हुई है और वो नहीं चाहती है की उनके रास्ते में कोई में रुकावट या प्रतिस्पर्धा पैदा हो. पर देश के आधे महिला वोटरों को राजी करने के लिए उनको अपने चहेरे पर नकली ही सही पर ख़ुशी तो दिखानी ही थी.
बेचारी कांग्रेस के हाथों से जब मुसलमान वोट खिसके हैं लालू मुलायम इन वोंटो को अपने हाथ से किसी भी सूरत में निकल देना नहीं चाहते इसलिए वो कहते हैं की मोजुदा महिला बिल में अल्पसंख्यकों और दलितों आदिवासियों के लिए गुंजाईस नहीं है, कांग्रेस को भी डर सता रहा है इसलिए उसने भी इस भूत को जगाना अभी जरुरी नहीं समजा और कह दिया की आमसहमति नहीं बनी है.
पर सड़क पर खड़े स्वयंसेवी सामाजिक संगठनों को कौन समजाये उन्होंने तो मोर्चा खोल दिया की बिल पारित होना चहिये. पर इनका दबाव कितना कारगर होगा ये शंकाओं से भरा हुआ है. हमारे देश में गैर राजनेतिक आंदोलनों का भविष्य कभी लम्बा और प्रभावी नहीं रहा है. गैर राजनेतिक आन्दोलनों को जन समर्थन भी सिमित ही मिलता है इसका कारण शायद अधिकांश ये आन्दोलन प्रायोजित और नकली होते हैं, कुछ सामाजिक संगठन ईमानदारी से करना भी चाहते हैं तो इनकी ही बिरादरी के इनकी टांग खीचने लग जाते हैं.
यु पी ए की सरकार महिला आरक्षण बिल क्यों नहीं पारित करना चाहती है क्योंकि उसकी मंशा बिलकुल नहीं है. वो क्यों नहीं चाहती ये बहस का विषय हो सकता है.
इस बहस के केंद्र में एक और सवाल है जिस पर चर्चा होनी चाहिए। आखिर वो वजहें कौन सी हैं जिनकी वजह से यह सरकार दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की मांगों को खारिज कर रही है। यह एक पेंचीदा सवाल है और इसका जवाब सीधा और सरल नहीं हो सकता।
संसदीय व्यवस्था में दलितों और पिछड़ों को आरक्षण पहले से तय है। उनके लिए सीटें आरक्षित पहले हैं। अभी इसी साल फरवरी में 109वें संशोधन के जरिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के आरक्षण को दस साल के लिए बढ़ाया गया है। ऐसे में महिला आरक्षण बिल में भी बिना कहे उनके लिए प्रावधान किया जाना चाहिए था। लेकिन यह प्रावधान नहीं किया गया।
यहां पर बहुत से लोग यह कहते हैं कि महिलाएं भी दलित हैं और जिस तरह दलितों को बांटना सही नहीं है, वैसे ही महिलाओं को भी बांटना सही नहीं होगा। बात पूरी तरह सही है। मर्दों की बनाई इस दुनिया में महिलाएं सबसे बड़ी दलित हैं। आबादी और जुल्म दोनों लिहाज से। एक पंडित भी अपने घर की महिला का शोषण करता है और एक दलित भी अपने घर की महिला को दलित बना कर रखता है। डिग्री का फर्क हो सकता है। लेकिन महिलाएं किसी तबके में आज़ाद नहीं है।
लेकिन इस तर्क के साथ यह भी एक सनातन सत्य है कि महिलाएं हिंदू भी होती हैं और मुसलमान भी। महिलाएं पंडित भी होती हैं और दलित भी। महिलाएं ठाकुर भी होती हैं और आदिवासी भी। जब समाज में यह विभाजन पहले से मौजूद है तो आरक्षण में इसका प्रावधन कर देने से कौन का अंतर पड़ जाएगा? यही नहीं जो नेता महिला आरक्षण में विभाजन का विरोध कर रहे हैं उनमें से बहुतों ने अपने शासन में इसी तरह का विभाजन किया और करवाया है। नीतीश कुमार ने बिहार में सियासी फायदे के लिए अति पिछड़ों का नारा दिया। यह क्या था? पिछड़ों को बांटने की कोशिश। ठीक उसी तरह राजस्थान में गुर्जरों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने की सिफारिश और बाद में अलग से प्रावधान करने का कदम बीजेपी के शासन काल में हुआ था। यह क्या था? इसलिए विभाजन की दलील बेहद बेतुकी और बेबुनियाद है। सभी संवेदनशील लोगों को इस दलील का विरोध करना चाहिए।
दरअसल, महिला आरक्षण बिल में दलितों और आदिवासियों के लिए भी प्रावधान नहीं किए जाने का एक ख़ास मकसद है। अगर इस बिल में यह प्रावधान किया गया तो उससे महिलाओं को विभाजित नहीं करने की दलील ख़त्म हो जाएगी। ऐसा हुआ तो पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के बागी तेवर को संभालना आसान नहीं होगा। सियासत का चेहरा मौकापरस्त चेहरा है। अगर पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का दबाव अधिक बढ़ा तो मजबूरी में उनके लिए भी प्रावधान बनाना पड़ सकता है। अगर महिला आरक्षण में यह प्रावधान किया गया तो बाकी बची सीटों पर भी पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को उसी अनुपात में हिस्सेदारी देनी पड़ेगी। सवर्ण सांसद और हुक्मरान इतनी बड़ी कीमत चुकाने को फिलहाल तैयार नहीं। और इसी से उनका जातिवादी चेहरा सामने आ जाता है।
ऐसे में एक ही उपाय बचता था कि महिला आरक्षण बिल को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता। अगर ऐसा होता तो इस पर किसी को एतराज नहीं होता। न पिछडों को, न दलितों, न आदिवासियों और न ही अल्पसंख्यकों को। देश के ज़्यादातर सांसद इससे खुश भी रहते। लेकिन सोनिया गांधी समेत चंद नेताओं ने सियासी फायदे के लिए इस बिल को आगे बढ़ा दिया।
महिलाओं को आरक्षण का मुद्दा एक और लिहाज से अनूठा है। नौकरियों में महिलाओं की हिस्सेदारी नहीं के बराबर है। शिक्षा संस्थानों में भी यही हाल है। देश की ज़्यादातर लड़कियों को अपनी पढ़ाई दसवीं से पहले ही छोड़ देनी पड़ती है। जरूरत उनके लिए आर्थिक योजनाएं शुरू करने की थी। नौकरियों और उच्च शिक्षा संस्थानों में उनके लिए सीटें आरक्षित करने की थीं। कानून और व्यवस्था सुधारने की थी ताकि वो घरों से बाहर निकलते वक़्त सुरक्षित महसूस कर सकें। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्हें सीधे संसद में हिस्सेदारी दी जा रही है। इन तमाम स्थितियों पर गौर करने पर बस एक ही जवाब आता है। महिला आरक्षण बिल कुछ और नहीं है, सिर्फ़ और सिर्फ़ ताक़तवर सवर्णों की सियासी साज़िश है। और इस साज़िश में कांग्रेस, बीजेपी के साथ लेफ्ट भी शामिल है।
मांगीलाल गुर्जर
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जिस दिन राज्य सभा में ये बिल पारित हुआ उस दिन महिला सांसदों ने मिठाई बाँट कर अपनी नकली ख़ुशी जाहिर की, असली ख़ुशी इसलिए नहीं रही क्योंकि ये वो महिला सांसद हैं जिनकी राजनीती के बाज़ार में दुकान जमी हुई है और वो नहीं चाहती है की उनके रास्ते में कोई में रुकावट या प्रतिस्पर्धा पैदा हो. पर देश के आधे महिला वोटरों को राजी करने के लिए उनको अपने चहेरे पर नकली ही सही पर ख़ुशी तो दिखानी ही थी.
बेचारी कांग्रेस के हाथों से जब मुसलमान वोट खिसके हैं लालू मुलायम इन वोंटो को अपने हाथ से किसी भी सूरत में निकल देना नहीं चाहते इसलिए वो कहते हैं की मोजुदा महिला बिल में अल्पसंख्यकों और दलितों आदिवासियों के लिए गुंजाईस नहीं है, कांग्रेस को भी डर सता रहा है इसलिए उसने भी इस भूत को जगाना अभी जरुरी नहीं समजा और कह दिया की आमसहमति नहीं बनी है.
पर सड़क पर खड़े स्वयंसेवी सामाजिक संगठनों को कौन समजाये उन्होंने तो मोर्चा खोल दिया की बिल पारित होना चहिये. पर इनका दबाव कितना कारगर होगा ये शंकाओं से भरा हुआ है. हमारे देश में गैर राजनेतिक आंदोलनों का भविष्य कभी लम्बा और प्रभावी नहीं रहा है. गैर राजनेतिक आन्दोलनों को जन समर्थन भी सिमित ही मिलता है इसका कारण शायद अधिकांश ये आन्दोलन प्रायोजित और नकली होते हैं, कुछ सामाजिक संगठन ईमानदारी से करना भी चाहते हैं तो इनकी ही बिरादरी के इनकी टांग खीचने लग जाते हैं.
यु पी ए की सरकार महिला आरक्षण बिल क्यों नहीं पारित करना चाहती है क्योंकि उसकी मंशा बिलकुल नहीं है. वो क्यों नहीं चाहती ये बहस का विषय हो सकता है.
इस बहस के केंद्र में एक और सवाल है जिस पर चर्चा होनी चाहिए। आखिर वो वजहें कौन सी हैं जिनकी वजह से यह सरकार दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की मांगों को खारिज कर रही है। यह एक पेंचीदा सवाल है और इसका जवाब सीधा और सरल नहीं हो सकता।
संसदीय व्यवस्था में दलितों और पिछड़ों को आरक्षण पहले से तय है। उनके लिए सीटें आरक्षित पहले हैं। अभी इसी साल फरवरी में 109वें संशोधन के जरिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के आरक्षण को दस साल के लिए बढ़ाया गया है। ऐसे में महिला आरक्षण बिल में भी बिना कहे उनके लिए प्रावधान किया जाना चाहिए था। लेकिन यह प्रावधान नहीं किया गया।
यहां पर बहुत से लोग यह कहते हैं कि महिलाएं भी दलित हैं और जिस तरह दलितों को बांटना सही नहीं है, वैसे ही महिलाओं को भी बांटना सही नहीं होगा। बात पूरी तरह सही है। मर्दों की बनाई इस दुनिया में महिलाएं सबसे बड़ी दलित हैं। आबादी और जुल्म दोनों लिहाज से। एक पंडित भी अपने घर की महिला का शोषण करता है और एक दलित भी अपने घर की महिला को दलित बना कर रखता है। डिग्री का फर्क हो सकता है। लेकिन महिलाएं किसी तबके में आज़ाद नहीं है।
लेकिन इस तर्क के साथ यह भी एक सनातन सत्य है कि महिलाएं हिंदू भी होती हैं और मुसलमान भी। महिलाएं पंडित भी होती हैं और दलित भी। महिलाएं ठाकुर भी होती हैं और आदिवासी भी। जब समाज में यह विभाजन पहले से मौजूद है तो आरक्षण में इसका प्रावधन कर देने से कौन का अंतर पड़ जाएगा? यही नहीं जो नेता महिला आरक्षण में विभाजन का विरोध कर रहे हैं उनमें से बहुतों ने अपने शासन में इसी तरह का विभाजन किया और करवाया है। नीतीश कुमार ने बिहार में सियासी फायदे के लिए अति पिछड़ों का नारा दिया। यह क्या था? पिछड़ों को बांटने की कोशिश। ठीक उसी तरह राजस्थान में गुर्जरों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने की सिफारिश और बाद में अलग से प्रावधान करने का कदम बीजेपी के शासन काल में हुआ था। यह क्या था? इसलिए विभाजन की दलील बेहद बेतुकी और बेबुनियाद है। सभी संवेदनशील लोगों को इस दलील का विरोध करना चाहिए।
दरअसल, महिला आरक्षण बिल में दलितों और आदिवासियों के लिए भी प्रावधान नहीं किए जाने का एक ख़ास मकसद है। अगर इस बिल में यह प्रावधान किया गया तो उससे महिलाओं को विभाजित नहीं करने की दलील ख़त्म हो जाएगी। ऐसा हुआ तो पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के बागी तेवर को संभालना आसान नहीं होगा। सियासत का चेहरा मौकापरस्त चेहरा है। अगर पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का दबाव अधिक बढ़ा तो मजबूरी में उनके लिए भी प्रावधान बनाना पड़ सकता है। अगर महिला आरक्षण में यह प्रावधान किया गया तो बाकी बची सीटों पर भी पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को उसी अनुपात में हिस्सेदारी देनी पड़ेगी। सवर्ण सांसद और हुक्मरान इतनी बड़ी कीमत चुकाने को फिलहाल तैयार नहीं। और इसी से उनका जातिवादी चेहरा सामने आ जाता है।
ऐसे में एक ही उपाय बचता था कि महिला आरक्षण बिल को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता। अगर ऐसा होता तो इस पर किसी को एतराज नहीं होता। न पिछडों को, न दलितों, न आदिवासियों और न ही अल्पसंख्यकों को। देश के ज़्यादातर सांसद इससे खुश भी रहते। लेकिन सोनिया गांधी समेत चंद नेताओं ने सियासी फायदे के लिए इस बिल को आगे बढ़ा दिया।
महिलाओं को आरक्षण का मुद्दा एक और लिहाज से अनूठा है। नौकरियों में महिलाओं की हिस्सेदारी नहीं के बराबर है। शिक्षा संस्थानों में भी यही हाल है। देश की ज़्यादातर लड़कियों को अपनी पढ़ाई दसवीं से पहले ही छोड़ देनी पड़ती है। जरूरत उनके लिए आर्थिक योजनाएं शुरू करने की थी। नौकरियों और उच्च शिक्षा संस्थानों में उनके लिए सीटें आरक्षित करने की थीं। कानून और व्यवस्था सुधारने की थी ताकि वो घरों से बाहर निकलते वक़्त सुरक्षित महसूस कर सकें। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्हें सीधे संसद में हिस्सेदारी दी जा रही है। इन तमाम स्थितियों पर गौर करने पर बस एक ही जवाब आता है। महिला आरक्षण बिल कुछ और नहीं है, सिर्फ़ और सिर्फ़ ताक़तवर सवर्णों की सियासी साज़िश है। और इस साज़िश में कांग्रेस, बीजेपी के साथ लेफ्ट भी शामिल है।
मांगीलाल गुर्जर
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Thursday, May 20, 2010
मुझे नहीं लगता की महिला आरक्षण मिल जाएगा
विभिन्न पार्टियों की तीव्र बहस के बाद भारतीय लोक सभा आखिरकार 16 मार्च तारीख को संपन्न हुई। लोकमतों द्वारा केन्द्रित 33 प्रतिशत महिला आरक्षण विधेयक प्रस्ताव पूर्व योजनानुसार इस दिन पारित नहीं हो पायी । भारतीय न्याय मंत्री मोइली ने इसी दिन नयी दिल्ली में मीडियाओं से कहा कि कांग्रेस पार्टी सरकार अन्य विभिन्न पार्टियों की एकमता न पाने की स्थिति में जबरदस्ती इस प्रस्ताव को पारित नहीं करना चाहती है।
ये अलग बात है की अमेरिका के साथ परमाणु समजोता करने के लिए मरी जा रही कांग्रेस ने उस समय इस प्रकार एकमत होने की न तो बात की थी और न ही इसकी प्रतीक्षा. सही बात तो ये है की कांग्रेस भी नहीं चाहती है की महिलाओं को 33 % आरक्षण मिल जाये. जो पार्टियाँ महिलाओं के होटों का ढोल पीट रही है वे अपने गिरेंबान में झांक कर देखे की इन्होने अपनी पार्टी के 33 पदों पर क्या महिलाओं को रखा हुआ है शायद नहीं. महिलाओं का मसला छोड़ो क्या दलितों और आदिवासियों को समुचित स्थान दे रखा है शायद नहीं. असल में ये मुद्दा है महंगाई और आतंकवाद जेसे मसलों से जनता का ध्यान हटाने के लिए.
इसी माह की 9 तारीख को भारतीय राज्य सभा ने बहुमत वोटों से संविधान की 108 धारा संशोधन प्रस्ताव पारित कर दिया। इस संशोधन प्रस्ताव के मुताबिक भारत की केन्द्रीय व विधान सभा को अवश्य महिला के लिए 33 प्रतिशत सीटें सुरक्षित रखनी होगी। उक्त भारतीय संशोधन कानून के अनुसार, इस प्रस्ताव को संसद के दो सदनों की दो तिहाई बहुमत से पारित होने पर ही प्रभाव में डाला जा सकता है। उस समय लोकमतों की आम राय थी कि हालांकि कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली गठबन्धन सरकार को संसद की लोक सभा में बहुमत सीटें हासिल हैं , और उधर विपक्षी भारतीय जनता पार्टी ने भी इस प्रस्ताव पर भी समर्थन जताया है, इस लिए लोक सभा में इस प्रस्ताव का पारित होने में कोई बाधा नहीं होगी। परन्तु आने वाले कुछ दिनों में भारतीय राजनीति मंच में विभिन्न पार्टियों ने अपने हितों को ध्यान में रखते हुए 9 तारीख से पार्टियों के बीच अनेक नौंक भौंक शुरू कर उसपर आपत्ति उठायी , जिस से इस महिला आरक्षण विधेयक को एक अनिश्चितकाल के भविष्य पर पहुंचा दिया गया।
केन्द्रीय और विधान सभा के दो सदनों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित प्रस्ताव 1996 में तत्कालीन गोडा सरकार द्वारा पेश की गयी थी, लेकिन तब से वे अब तक भारतीय संसंद में पारित नहीं हो पायी है।
लोगों आश्चर्य चकित हैं कि भारत आखिर क्यों इस आसाधारण प्रस्ताव को पारित करना चाहता है ? इस का भारत में महिला की स्थिति से घनिष्ठ संबंध है। भारतीय महिला ने सौ सालों की कड़ी मेहनत से हालांकि धीरे धीरे पुरूष जैसी राजनीतिक अधिकार समानता हासिल करने में थोड़ी बहुत प्रगति की है, तो भी पूर्ण रूप से महिला अब भी कमजोर स्थान में पड़ी हुई हैं। भारतीय महिला लम्बे अर्से से राजनीति में भाग लेने व प्रशासन में अपनी राय प्रस्तुत करने तथा संपति अधिकार पाने में वंचित रही हैं। पिछली शताब्दी के 90 वाले दशक से भारत में अर्थतंत्र का पुनरूत्थान शुरू होने के बाद से महिला सामाजिक जीवन में अधिकाधिक प्रफुल्लित होने लगी और तब से भारतीय महिला के अपने अधिकार व हित से संबंधित अधिकारों को पाने की सामाजिक आधार धीरे धीरे परिपक्व होने लगी हैं। इसी पृष्ठभूमि तले, भारत के संविधान नम्बर 108 धारा संशोधन प्रस्ताव को औपचारिक रूप से संसद की कार्यसूची में दाखिल किया गया।
महिला आरक्षण विधेयक प्रस्ताव भारतीय महिलाओं के सामाजिक स्थान को उन्नत करने व भारतीय समाज की प्रगति के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्ध होता है। तो क्यों समाजवादी और राष्ट्रीय जनता दल आदि कुछेक पार्टियां इस का विरोध कर रही हैं ? विश्लेषकों ने कहा है कि भारत की दो मुख्य पार्टी कांग्रेस व भाजपा लम्बे अर्से से बुनियादी इकाईयों की जनता में अपनी गतिविधियां चलाती आयी हैं , इस लिए उनके पास बहु मतदाता हैं और उनको बहुत सी सर्वश्रेष्ठ महिला राजनीतिज्ञों का भी समर्थन प्राप्त हैं। यदि ये दो पार्टियां महिला आरक्षण विधेयक को सहमति देते हैं तो उन्हें अधिक वोट हासिल हो सकते हैं और उनका राजनीतिक क्षेत्र बढ़ सकता है। जबकि समाजवादी व राष्ट्रीय जनता दल आदि छोटी पार्टियों की संसद में सींटे इतनी संतोषजनक नहीं हैं, और तो और इन पार्टियों के मतदाता आम तौर पर समाज के निचले वर्ग के जन समूह हैं, सर्वश्रेष्ठ महिला राजनीतिज्ञों का नामोनिशान तक नहीं हैं। यदि कांग्रेस और भाजपा संसद में जबरन इस प्रस्ताव को पारित करती है तो ये छोटी पार्टियां गठबन्धन सत्तारूढ़ सरकार के खिलाफ खड़ी हो सकती हैं और विपक्ष पार्टी हाथ धरे बैठे इस का लाभ उठा सकती हैं। इस कारण कांग्रेस सरकार को इस समस्या पर संजीदगी से विचार करना बहुत ही अनिवार्य है। विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस महिला आरक्षण विधेयक को जबरन पारित कर अपने राजनीतिक स्थान को जोखिमता में नहीं डालेगी।पर काफी हद तक लालूप्रसाद और मुलायम जेसे नेताओं के तर्क ठीक लगते हैं की महिलाओं को 33 % आरक्षण मिलने पर भी गरीब और दलित वर्ग की महिलाओं की बजाय कार्पोरेट सेक्टर और सामंती वर्ग की महिलाओं को ही इसका लाभ मिलेगा ये बात है भी सही क्योंकि जिस देश की संसद में 350 सांसद करोडपति हो और गरीब पुरुष सांसद को भी आज लोकसभा में पहुंचना लगभग असंभव लग रहा हो इसे माहोल में गरीब महिला का संसद में पहुंचना एक ख़ूबसूरत सपने जेसा ही है, हमारे देश में जहाँ एम् एल ए और एम् पी के टिकट बिक रहे हो वहां गरीब की हैसियत ही नहीं है की वो चुनाव में खड़ा हो जाये.
नवीनतम जारी एक जनमत संग्रह से पता चला है कि भारत की मीडिया इस विधेयक का समर्थन करती है, लेकिन जनता नहीं मानती है कि इस प्रस्ताव के पारित होने से महिला के हित व अधिकार में कोई असली सुधार होगा।मिडिया के समर्थन के पीछे बाज़ारवादी सोच है जो सीधा बहुरास्ट्रीय कम्पनियों से जुडा है जो उपभोक्ता सामग्री का निर्माण करती है और उसे बेचने के लिए महिला मोडल के रूप में मिडिया में एक बड़ी अहम् भूमिका निभा रही है इसके अलावा महिला एलोक्ट्रानिक मिडिया की सबसे बड़ी दर्शक है
भारतीय सामाजिक शास्त्र के विशेषज्ञों का मानना है कि हालांकि भारत के पास अनेक सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक महिलाएं तो हैं, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि भारत की महिलाओं को फिलहाल पुरूष जैसी समानता व अधिकार हासिल हो चुकी हैं, भारत महिला की अन्तिम मुक्ति भारत के सामाजिक अर्थतंत्र विकास पर निर्भर रहती है।क्योंकि सही मायने में महिला तभी स्वतंत्र होगी जब वो आर्थिक रूप से सक्षम बने और उसके द्वारा कमाए गए धन का भी वो खुद उपयोग करने का निर्णय ले सके जो अभी दूर दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहा है.
मांगीलाल गुर्जर
ये अलग बात है की अमेरिका के साथ परमाणु समजोता करने के लिए मरी जा रही कांग्रेस ने उस समय इस प्रकार एकमत होने की न तो बात की थी और न ही इसकी प्रतीक्षा. सही बात तो ये है की कांग्रेस भी नहीं चाहती है की महिलाओं को 33 % आरक्षण मिल जाये. जो पार्टियाँ महिलाओं के होटों का ढोल पीट रही है वे अपने गिरेंबान में झांक कर देखे की इन्होने अपनी पार्टी के 33 पदों पर क्या महिलाओं को रखा हुआ है शायद नहीं. महिलाओं का मसला छोड़ो क्या दलितों और आदिवासियों को समुचित स्थान दे रखा है शायद नहीं. असल में ये मुद्दा है महंगाई और आतंकवाद जेसे मसलों से जनता का ध्यान हटाने के लिए.
इसी माह की 9 तारीख को भारतीय राज्य सभा ने बहुमत वोटों से संविधान की 108 धारा संशोधन प्रस्ताव पारित कर दिया। इस संशोधन प्रस्ताव के मुताबिक भारत की केन्द्रीय व विधान सभा को अवश्य महिला के लिए 33 प्रतिशत सीटें सुरक्षित रखनी होगी। उक्त भारतीय संशोधन कानून के अनुसार, इस प्रस्ताव को संसद के दो सदनों की दो तिहाई बहुमत से पारित होने पर ही प्रभाव में डाला जा सकता है। उस समय लोकमतों की आम राय थी कि हालांकि कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली गठबन्धन सरकार को संसद की लोक सभा में बहुमत सीटें हासिल हैं , और उधर विपक्षी भारतीय जनता पार्टी ने भी इस प्रस्ताव पर भी समर्थन जताया है, इस लिए लोक सभा में इस प्रस्ताव का पारित होने में कोई बाधा नहीं होगी। परन्तु आने वाले कुछ दिनों में भारतीय राजनीति मंच में विभिन्न पार्टियों ने अपने हितों को ध्यान में रखते हुए 9 तारीख से पार्टियों के बीच अनेक नौंक भौंक शुरू कर उसपर आपत्ति उठायी , जिस से इस महिला आरक्षण विधेयक को एक अनिश्चितकाल के भविष्य पर पहुंचा दिया गया।
केन्द्रीय और विधान सभा के दो सदनों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित प्रस्ताव 1996 में तत्कालीन गोडा सरकार द्वारा पेश की गयी थी, लेकिन तब से वे अब तक भारतीय संसंद में पारित नहीं हो पायी है।
लोगों आश्चर्य चकित हैं कि भारत आखिर क्यों इस आसाधारण प्रस्ताव को पारित करना चाहता है ? इस का भारत में महिला की स्थिति से घनिष्ठ संबंध है। भारतीय महिला ने सौ सालों की कड़ी मेहनत से हालांकि धीरे धीरे पुरूष जैसी राजनीतिक अधिकार समानता हासिल करने में थोड़ी बहुत प्रगति की है, तो भी पूर्ण रूप से महिला अब भी कमजोर स्थान में पड़ी हुई हैं। भारतीय महिला लम्बे अर्से से राजनीति में भाग लेने व प्रशासन में अपनी राय प्रस्तुत करने तथा संपति अधिकार पाने में वंचित रही हैं। पिछली शताब्दी के 90 वाले दशक से भारत में अर्थतंत्र का पुनरूत्थान शुरू होने के बाद से महिला सामाजिक जीवन में अधिकाधिक प्रफुल्लित होने लगी और तब से भारतीय महिला के अपने अधिकार व हित से संबंधित अधिकारों को पाने की सामाजिक आधार धीरे धीरे परिपक्व होने लगी हैं। इसी पृष्ठभूमि तले, भारत के संविधान नम्बर 108 धारा संशोधन प्रस्ताव को औपचारिक रूप से संसद की कार्यसूची में दाखिल किया गया।
महिला आरक्षण विधेयक प्रस्ताव भारतीय महिलाओं के सामाजिक स्थान को उन्नत करने व भारतीय समाज की प्रगति के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्ध होता है। तो क्यों समाजवादी और राष्ट्रीय जनता दल आदि कुछेक पार्टियां इस का विरोध कर रही हैं ? विश्लेषकों ने कहा है कि भारत की दो मुख्य पार्टी कांग्रेस व भाजपा लम्बे अर्से से बुनियादी इकाईयों की जनता में अपनी गतिविधियां चलाती आयी हैं , इस लिए उनके पास बहु मतदाता हैं और उनको बहुत सी सर्वश्रेष्ठ महिला राजनीतिज्ञों का भी समर्थन प्राप्त हैं। यदि ये दो पार्टियां महिला आरक्षण विधेयक को सहमति देते हैं तो उन्हें अधिक वोट हासिल हो सकते हैं और उनका राजनीतिक क्षेत्र बढ़ सकता है। जबकि समाजवादी व राष्ट्रीय जनता दल आदि छोटी पार्टियों की संसद में सींटे इतनी संतोषजनक नहीं हैं, और तो और इन पार्टियों के मतदाता आम तौर पर समाज के निचले वर्ग के जन समूह हैं, सर्वश्रेष्ठ महिला राजनीतिज्ञों का नामोनिशान तक नहीं हैं। यदि कांग्रेस और भाजपा संसद में जबरन इस प्रस्ताव को पारित करती है तो ये छोटी पार्टियां गठबन्धन सत्तारूढ़ सरकार के खिलाफ खड़ी हो सकती हैं और विपक्ष पार्टी हाथ धरे बैठे इस का लाभ उठा सकती हैं। इस कारण कांग्रेस सरकार को इस समस्या पर संजीदगी से विचार करना बहुत ही अनिवार्य है। विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस महिला आरक्षण विधेयक को जबरन पारित कर अपने राजनीतिक स्थान को जोखिमता में नहीं डालेगी।पर काफी हद तक लालूप्रसाद और मुलायम जेसे नेताओं के तर्क ठीक लगते हैं की महिलाओं को 33 % आरक्षण मिलने पर भी गरीब और दलित वर्ग की महिलाओं की बजाय कार्पोरेट सेक्टर और सामंती वर्ग की महिलाओं को ही इसका लाभ मिलेगा ये बात है भी सही क्योंकि जिस देश की संसद में 350 सांसद करोडपति हो और गरीब पुरुष सांसद को भी आज लोकसभा में पहुंचना लगभग असंभव लग रहा हो इसे माहोल में गरीब महिला का संसद में पहुंचना एक ख़ूबसूरत सपने जेसा ही है, हमारे देश में जहाँ एम् एल ए और एम् पी के टिकट बिक रहे हो वहां गरीब की हैसियत ही नहीं है की वो चुनाव में खड़ा हो जाये.
नवीनतम जारी एक जनमत संग्रह से पता चला है कि भारत की मीडिया इस विधेयक का समर्थन करती है, लेकिन जनता नहीं मानती है कि इस प्रस्ताव के पारित होने से महिला के हित व अधिकार में कोई असली सुधार होगा।मिडिया के समर्थन के पीछे बाज़ारवादी सोच है जो सीधा बहुरास्ट्रीय कम्पनियों से जुडा है जो उपभोक्ता सामग्री का निर्माण करती है और उसे बेचने के लिए महिला मोडल के रूप में मिडिया में एक बड़ी अहम् भूमिका निभा रही है इसके अलावा महिला एलोक्ट्रानिक मिडिया की सबसे बड़ी दर्शक है
भारतीय सामाजिक शास्त्र के विशेषज्ञों का मानना है कि हालांकि भारत के पास अनेक सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक महिलाएं तो हैं, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि भारत की महिलाओं को फिलहाल पुरूष जैसी समानता व अधिकार हासिल हो चुकी हैं, भारत महिला की अन्तिम मुक्ति भारत के सामाजिक अर्थतंत्र विकास पर निर्भर रहती है।क्योंकि सही मायने में महिला तभी स्वतंत्र होगी जब वो आर्थिक रूप से सक्षम बने और उसके द्वारा कमाए गए धन का भी वो खुद उपयोग करने का निर्णय ले सके जो अभी दूर दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहा है.
मांगीलाल गुर्जर
Wednesday, May 5, 2010
पुराने कानूनों से बरपा रहे हैं जुल्म, नए का इल्म नहीं



वन अधिकार कानून के पारित होने के बाद लघु वन उपज पर आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन वासियों का अधिकार हो गया है. अब ते समुदाय वनों से वन उपज का संग्रहण, उपभोग और अपनी आजीविका के लिए इसे सर बोझ, हाथ गाड़ी या साइकल द्वारा ला कर बेच भी सकते हैं,
पर वन अधिकार कानून के लागु होने के दो साल बाद भी राजस्थान की पुलिस इस कानून से बेखबर है और आये दिन इन समुदायों के लोगों पर वन अधिनियम 1927 के प्रावधानों के तहत मुकदमे बना रही है, राज्य की पुलिस को ये भी पता नहीं है की लघु वन उपज पर आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन वासियों का क़ानूनी अधिकार हो गया है, और इसी गफलत के कारण उदयपुर जिले में ही 5 से ज्यादा मुकदमे बना कर 15 से अधिक लोंगो को शहद, महुआ, आदि ले जाते हुए गिरफ्तार किया.
इस बारे में जब 26 मई को उदयपुर जिले की गोगुन्दा तहसील की सायरा पुलिस ने दो आदिवासियों को पकड़ा तो हमने पुलिस को उन आदिवासियों को वन अधिकार कानून का हवाला दे कर छोड़ने को कहा पर पुलिस का कहना था की उनके पास नए कानून की कोई जानकारी नहीं है और हमारे हिसाब से वन उपज का संग्रहण, उपभोग और परिवहन अपराध है, फिर हम कानून की किताब के साथ उदयपुर पुलिस रेंज के पुलिस महानिरीक्षक से मिले और उनको कानून के बारे में बताया, उन्होंने इसे अपनी गलती माना और ततकाल उदैपुर रेंज के सभी पुलिस थानों को जिला पुलिस अधीक्षकों के जरिये आदेश भिजवाया की किसी भी आदिवासी या अन्य परंपरागत वन वासियों को लघु वन उपज लेट हुए परेशान नहीं किया जाये.
मांगीलाल गुर्जर
उदयपुर
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